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भगवान महावीर
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योग से ध्यानारूढ़ हो गये कर्मों के मैल को साफ करने के लिये यह अन्तिम धमोघ प्रयत्न था। ध्यान में उनका सम्पूर्ण उपयोग मारमा में केन्द्रित हो गया इन्द्रियों और मन की गति निश्चल हो गई तन भी निस्यन्द था। अब तो मारमा को प्रात्मा के लिए आत्मा में ही सब कुछ पाना था। आत्मा की गुप्त और सुप्त समस्त शक्तियों को उजागर करना या मारमा की विशुद्धता निरन्तर प्रतिक्षण बढ़ती जा रही थी। वे अपक श्रेणी पर बारोहण करके शुक्ल ध्यान को बढ़ाते जा रहे थे। भरत में श्रात्मा के परम पुरुषार्थ ने कमों पर विजय प्राप्त कर लो उस समय वैशाख शुक्ला दशमी का पावन प्रपराण्ड काल था चन्द्रमा हस्त धोर उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्रों के मध्य में स्थित था। उस समय भगवान ने ज्ञानावरणी दर्शनावरणी, मोहनीय और मन्तराय नामक चारों घातिया कर्मों का क्षय कर दिया। फलतः उन्हें धनन्त ज्ञान, मनन्त दर्शन, घनन्त दल पर अनन्त वीर्य नामक चार प्रात्मिक शक्तियां प्राप्त हो गई। उन्होंने
तचतुष्टय प्राप्त कर लिए। अब वे सर्वज्ञ सर्वदर्शी हो गये। सूर्य उदित होता है तो कमल स्वयं खिल उठते हैं। जिस शरीर के भीतर स्थित मात्मा में केवल ज्ञान का सूर्य उगा तो वह शरीर भी साधारण से असाधारण हो गया। वह परमोदारिक हो गया और भूमि से उठकर आकाश में स्थित हो गया अर्थात् भूमि से चार अंगुल ऊपर उठ गया । मन्य चौबीस प्रतिशय प्रगट हो गये। वह शरीर महिमा का निधान बन गया ।
आत्मा के इस अलौकिक चमत्कार की मोहिनी से प्राकर्षित होकर वहां चारों जातियों के देव और इन्द्र षंढा और भक्ति से भरे हुए पाये श्रीर थाकर भगवान की पूजा की, स्तुति की और केवल ज्ञान कल्याणक का महोत्सव मनाया। तब सौधर्मेन्द्र की प्राशा से कुबेर ने समवसरण की रचना की।
भगवान महावीर गुदमरण के मध्य में में सिंहासन पर विराजमान थे। सप्त प्रातिहार्यं विद्यमान थे । समग्रसरण में श्रोता उपस्थित थे। किन्तु भगवान की दिव्य ध्वनि नहीं हो रही थी। भ्रष्ट प्रतिहार्य में यह कमो सामान्य थी । तीर्थकर प्रकृति के उदय होने पर भ्रष्ट प्रातिहार्य अनिवार्य होते हैं। सभी श्रोता भगवान का उपदेश सुनने के लिए उत्सुक थे । किन्तु भगवान मौन थे । छद्मस्थ दशा में बारह वर्ष तक भगवान मौन रहे थे और केवल ज्ञान उत्पन्न होने पर भी भगवान का मौन भंग नहीं हो रहा था। धर्म के नाम पर प्रचारित मनाचार और मूढ़ताओं से मानव ऊबा हुआ था। देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सभी प्राणी चातक के समान भगवान के मुख की ओर निहार रहे थे कि कब कल्याण मार्ग की अमृत वर्षा होती है | यह स्थिति छियासठ दिन तक रही । श्रोता समवसरण में प्राते और निराश लौट जाते । स्थिति सामान्य थी। सौधन्द्र को इस स्थिति से चिन्ता हुई। उसने अवधिज्ञान का उपयोग लगाकर ज्ञात किया भगवान की वाणी झेल सके ऐसा कोई गणधर जब तक न हो तब तक भगवान को दिव्य ध्वनि से खिरेगी और मुख्य गणवर बनने की पात्रता केवल इन्द्रभूति गौतम में है। वह ब्राह्मण वेद वेदाह का प्रकाण्ड विद्वान है, किन्तु वह महाभिमानी हैं। एक बार उसे भगवान के निकट लाना होगा। तभी दिव्य ध्वनि का अवरुद्ध स्रोत प्रवाहित हो सकेगा ।
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यह विचार करके इन्द्र बृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण करके इन्द्रभूति गौतम के धावासीय गुरुकुल में पहुंचा, जहाँ इन्द्रभूति पांच सौ शिप्यों को शिक्षण देता था। इन्द्र ने जाकर गौतम को आदरपूर्वक नमस्कार किया और बोला-'विद्वन ! मैं आपकी विद्वत्ता को कीति सुनकर आपके पास बाया हूँ मेरे गुरु ने मुझे एक गाथा सिखाई थी। उस गाथा का अर्थ मेरी समझ में अच्छी तरह से नहीं आ रहा है। मेरे गुरु अभी मौन धारण किये हुए हैं । इसलिये आप कृपा करके मुझे उस गाथा का अर्थ समझा दीजिये।
गणधर का समागम
इन्द्रभूति सुनकर बोले- मैं तुम्हें गाथा का अर्थ इस शर्त पर बता सकता हूँ कि तुम गाथा का अर्थ समझ कर मेरे शिष्य बन जाओगे ।'
इन्द्र में गौतम की शर्त स्वीकार कर ली और उनके समक्ष निम्नलिखित गाया प्रस्तुत की
'पंचैव प्रस्थिकाया छज्जीवणिकाया महत्वया पंच । gय पचवणमादा सहेज्यो] बंध- मोक्लो म ।
-- षट् खण्डागम पु० पू० १२९ इन्द्रभूति इस गाथा को पढ़ते ही असमंजस में पड़ गये। उनकी समझ में ही नहीं पाया कि पंच मस्तिकाय,
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