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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
दिव्य ध्वनि के सम्बन्ध में विस्तार से बताया है और कहा है कि भगवान की दिव्य ध्वनि भगवान की बादलों को गर्जना के समान और गम्भीर होती है। दिव्य ध्वनि सुनकर श्रोताओं के मन का विध्य ध्वनि मोह और सन्देह दूर हो जाता है। भगवान यद्यपि एक हो भाषा में बोलते हैं, किन्तु भगवान
के माहात्म्य के कारण वह १८ महानाषा सौर ७०० लघुभाषाओं के रूप में परिणत हो जाती है और प्रत्येक श्रोता उसे अपनी-अपनी भाषा में समझ लेता है। जैसे जल तो एक ही प्रकार का होता है, किन्तु विभिन्न प्रकार के वृक्षों की जड़ों में पहुंच कर वृक्ष स्वभाव के अनुसार रसवाला हो जाता है। इसके लिये एक दूसरा उदाहरण भी दिया है। जैसे स्फटिक मणि एक ही प्रकार की होती है किन्तु उसके पास जिस रंग का पदार्थ रख दिया जाता है, वह मणि उस पदार्थ के संयोग से उसी रंग वाली प्रतीत होने लगती है। इसी प्रकार भगवान की दिव्य ध्वनि भी एक प्रकार की होती है. किन्तु गोस: जिस भापको समानिसले कानों में उसी भाषा में सुनाई पड़ती है। कुछ लोगों की धारणा है कि देवों द्वारा वह दिव्य ध्वनि सर्व भाषा रूप परिणत की जाती है। किन्तु प्राचार्य की मान्यता है कि ऐसा मानने पर यह माहात्म्य भगवान का न मामकर देवों का मानना पड़ेगा। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि दिव्य ध्वनि अनक्षरी होता है किन्तु अनक्षरी का अर्थ लोक कैसे समझेगा। इसलिये वस्तुतः वह अक्षर रूप ही होती है, अनक्षरी नहीं।
जब भगवान की दिव्यध्वनि होती है, उस समय वोलते समय भगवान के मुख पर कुछ भी विकार उत्पन्न नहीं होता । न तो उस समय भगवान के तालु मोठादि ही हिलते है, न उनके मुख की कान्ति बदलती है। वह बिना किसी प्रयत्न और इच्छा के ही होती है। उसने प्रक्षर स्पष्ट होते हैं। जब बह दिव्य ध्वनि भगवान के मुख से निकलती है तो लगता है जैसे किसी पर्वत की गुफा के अनभाग से प्रतिध्वनि निकल रहो हो।
- भगवान महावीर लोकोत्तर महापुरुष थे। उनके व्यक्तित्व और देशना का प्रभाव उस काल में निधन से लेकर राजाओं और झोंपड़ी से लेकर राजमहालयों तक समान रूप से पड़ा था। प्रभाव पड़ने का अर्थ था कि वे
भगवान के धर्म में दीक्षित हो गये थे। भगवान महावीर के देशना काल से पूर्व पाश्र्वापत्य तत्कालीन राजन्य धर्म का व्यापक प्रचार था। तत्कालीन क्षत्रिय वर्ग और राजन्य वर्ग प्रायः पावापत्य धर्म वर्ग पर भगवान का अनुयायी था। भगवान के मातामह और वैशालो के गण प्रमुख महाराज चेटक और का प्रभाव कुण्डग्राम के गण प्रमुख और भगवान के पिता महाराज सिद्धार्थ भी पाश्वपित्य थे । अन्य
अनेक राजा भी इस धर्म के अनुयायी थे। किन्तु भगवान महावीर के उपदेश और धर्म-देशना को सुनकर वे सभी महावीर द्वारा उपदिष्ट धर्म में दीक्षित हो गये । पाश्वापत्य और महावीर द्वारा उपदिष्ट धर्म भिन्न-भिन्न नहीं थे। ऋषभदेव से लेकर तीर्थंकरों को परम्परा द्वारा एक ही धर्म का उपदेश दिया गया। अत: किसी तीर्थकर ने किसो नवीन धर्म को न तो स्थापना की ओर न किता नसत्य को उभावना हो को। दो तोथंकरों का अन्तराल काल में धर्म की जो ज्योति धूमिल पड़ गई थी, उसो ज्योति को अागामो तीर्थकर ने अपने काल में अपने प्रभाव और धर्मोपदेशों से प्रज्वलित और प्रदीप्त किया। पार्श्वनाथ के २५० वर्ष पश्चात् महावीर हुए। इस अन्तगल में धर्म के प्रति लोक-रुचि में कुछ ह्रास पाना स्वाभाविक था। महावीर ने पुनः धम के प्रति लोक-रुचि को जागत किया। अतएव पाश्वनाथ और महावार दोनों एक ही परम्परा के समर्थ महापुरुष और तीर्थकर थे। इसीलिये यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि महानोर ने किसी नवीन धर्म की स्थापना की।
श्रणिक विम्बसार
राजामों में भगवान महावीर का सर्वप्रमुख भक्त मगध सम्राट् श्रेणिक विम्बसार था।
वह शिशुनागवंशी था। इतिहासकारों ने इस वंश के राजाओं का प्रामाणिक इतिहास दिया है। मिक बिन्सण्ट स्मिथ के अनुसार इस वंश के श्रेणिक से पूर्ववर्ती राजारों का राज्य-काल कुल मिलाकर १२६ वर्ष होता
१. प्रादि पुराण पर्व २४ दलोक १-६४