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भगवान महावीर
जब बालक तीन बर्ष का हुआ, माता स्थण्डिला ने द्वितीय पुत्र को जन्म दिया। यह जीव भी पांचवें स्वर्ग से प्राया था। यह भी वैसा ही सुन्दर और तेजस्वी था । इस बालक का नाम गार्य रक्खा गया, जो बाद में अग्निमति के नाम से प्रसिद्ध हुए।
इसके कुछ काल पश्चात् शाण्डिल्य ब्राह्मण की द्वितीय पत्नी केसरी ने वैसे ही तेजस्व) पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम भार्गव रक्खा गया। यह भी पांचवें स्वर्ग से माया था। यह पुत्र बाद में वायुभूति के नाम से प्रसिद्ध
हुमा।
तीनों भाइयों ने समस्त बेद-वेदाङ्ग और सम्पूर्ण विद्याओं का अध्ययन किया और वे उनमें पारंगत हो गये। उन्होंने अपने-अपने गुरुकुल खोल लिये और शिष्यों को पढ़ाने लगे। तीनों के शिष्यों की संख्या पांच-पांच सौ थी। किन्तु इन्द्रभूति में एक दुर्बलता भी थी। उन्हें अपनी विद्वत्ता का बड़ा अभिमान था।
इसके पश्चात् देवराज इन्द्र छद्मरूप धारण करके उन्हें अपने साथ भगवान महावीर के पास ले गया। वहाँ जाकर इन्द्रभूति का मान गलित हो गया और वे भगवान के चरणों में जैनेश्वरी दीक्षा लेकर भगवान के प्रथम पौर मुख्य गणधर बने, इसका वर्णन पूर्व में किया जा चुका है।
आर्ष नथ जयधवला में इन्द्रभूति गौतम गणधर की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए इस प्रकार प्राचार्य बीरसेन ने बताया है--
'जो आर्यक्षेत्र में उत्पन्न हए हैं; मति-श्रुत-अवधि और मन:पर्यय इन चार निर्मलज्ञानों से सम्पन्न हैं; जिन्होंने दीप्त, उग्र और तप्त तप को तपा है। जो अणिमा प्रादि आठ प्रकार की वक्रियिक लब्धियों से सम्पन्न है। जिनका सर्वार्थसिद्धि में निवास करने वाले देवों से अनन्त गुना बल है। जो एक मुहूर्त में बारह अगों के अर्थ और द्वादशांग रूप ग्रंथों के स्मरण और पाठ करने में समर्थ हैं; जो अपने पाणिपात्र में दी गई खीर को अमत रूप से परिवर्तित करने में या उसे अक्षय बनाने में समर्थ हैं। जिन्हें प्राहार और स्थान के विषय में अक्षीण ऋद्धि प्राप्त है: जिन्होंने सर्वावधि ज्ञान से प्रशेष पूदगल द्रव्य का साक्षात्कार कर लिया है। तप के बल से जिन्होंने उत्कृष्ट विपल मति मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न कर लिया है। जो सात प्रकार के भय से रहित है; जिन्होंने चार कषायों का क्षय कर दिया है। जिन्होंने पाँच इंद्रियों को जीत लिया है। जिन्होंने मन-वचन-काय रूप दण्डों को भग्न कर दिया है। जो छहकायिक जीवों की दया पालने में सत्पर हैं; जिन्होंने कुल मद प्रादि पाठ मदों को नष्ट कर दिया है, जो क्षमादि दस धर्मों में निरन्तर उद्यत है; जो पाठ प्रवचन मातक गणों का अर्थात् पांच समितियों और तीन गुप्तियों का परिपालन करते हैं। जिन्होंने क्षधा प्रादि बाईस परीषहो के प्रसार को जीत लिया है। और जिनका सत्य ही अलंकार है, से प्रार्य इंद्रभूति के लिये उन महावीर भट्टारक ने अर्थ का उपदेश दिया। उसके अनन्तर उन गौतम गोत्र में उत्पन्न हए इन्द्रभूति ने एक अन्तर्महूर्त में द्वादशांग के अर्थ का अवधारण करके उसो समय बारह अंग रूप ग्रंथों को रचना की और गुणों में अपने समान सुधर्माचार्य को इसका व्याख्यान किया । तदनन्तर कुछ काल के पश्चात् इन्द्रभूति भद्रारक केवलज्ञान को उत्पन्न करके और बारह वर्ष तक केवलि बिहार रूप से बिहार करके मोक्ष को प्राप्त हए।'
इस विवरण में गणधर इन्द्रभूति गौतम के सम्बन्ध में सभी ज्ञातव्य बातों पर प्रकाश डाला गया है । किन पाश्चर्य है कि शेष गणधरों के सम्बन्ध में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती।
भगवान का धर्म संघ-भगवान महावीर के चतुर्विध संघ में ११ गणधर थे। इनके अतिरिक्त ३११ ग्यारह अंगों और १४ पूर्वो के ज्ञाता, १६०० शिक्षक, १३०० अवधिज्ञानी, ७०० केवलज्ञानी, १०० विक्रिया ऋति के धारक, ५०० मनःपर्ययज्ञानी और ४०० अनुत्तरवादी थे। इस प्रकार सब मुनियों की संख्या १४००० थी। चन्दना आदि ३६००० अजिकायें थीं। १००००० श्रावक और ३००००० श्राविकायें थीं। इनके अतिरिक्त असंख्यात देव देवियां और संख्यात तिर्यञ्च उनके भक्त थे।
भगवान की दिव्य ध्वनि प्रर्थात् उपदेश अर्धमागधी भाषा में होता था। कुछ विद्वानों का मत है कि अर्धमागधी भाषा प्राधे मगध में बोली जाने वाली भाषा होती है और यह लोक भाषा होती है। भगवज्जिनसेन' ने
१. आदि पुराण पर्व २३ श्लोक ६६ से ७३