Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 386
________________ भगवान महावीर इस विवरण से मिलता जुलता विवरण घर्मतीर्थ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में तिलोयपण्णत्ती में इस प्रकार दिया है स रखेय रमणहरणे गुणणामे पंचसेलणयरम्मि । विपुलfम्म पदवरे वीरजिणो श्रद्धकत्तारो ||११६५ अर्थात् देव और विद्याधरों के मन को मोहित करने वाले और सार्थक नाम वाले पंचजनगर (राजगृह, में पर्वतों में श्रेष्ठ विपुलाचल पर्वत पर श्री बीरजिनेन्द्र अकर्ता हुए । 'एत्थावसप्पिणीए चउत्थकाला चरिमभागस्मि । तेत्तीसवास डास पण्णरस दिवससे सम्मि || १६६ वासस्स पढममासे साबणामम्मि बहुलपडिवाए । अभिजीणवतम्मि य उपपत्ती धम्मतित्थस्स ११८६६ अर्थात् यहाँ अवसर्पिणी के चतुर्थ काल के अन्तिम भाग में तैंतीस वर्ष बाद माह योर पन्द्रह दिन शेष रहने पर प्रथम मास श्रावण में कृष्ण पक्ष की प्रतिपक्ष के दिन अभिजित नक्षत्र के उदित रहने पर धर्म तीर्थ की उत्पति हुई। श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन ही युग का प्रारम्भ हुया था । यह भी एक संयोग था कि श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से भगवान की ध्वनि हुई। इस प्रकार धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति या धर्म प्रवर्तन की तिथि श्रावण कृष्णा प्रतिपदा है । भगवान के गणधर भगवान महावीर के ११ गणधर थे, जिनके नाम इस प्रकार है- इन्द्रभूति, अग्निभूषि, वायुभूति व्यक्त, सुधर्म, मण्डपुत्र, मोर्यपुत्र प्रकम्पित, श्रचलभ्राता मंत्रार्थ और प्रभास ये सभी गणवर ब्रह्मण थे, उपाध्याय थे। ग्यारह अंग और चौदह पूर्व के ज्ञाता थे। ये बज्रवृषभनाराच संहनन के धारी थे। सबके समचतुरस्र संस्थान था । गणधर बनने पर सबको ग्रामपोधि यादि प्राठ लब्धियां प्राप्त हो गई थीं और मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अत्रविज्ञान और मनःपर्ववज्ञान इन बार ज्ञानों की उत्पत्ति होगई थी । ये सभी अपने शिष्य समुदाय के साथ भगवान के निकट दोक्षित हुए थे । इन गणधरों के सम्बन्ध में श्वेताम्बर साहित्य में विस्तृत परिचय मिलता है । संक्षेप में इनके सम्बन्ध में विशेष ज्ञातव्य इस प्रकार है- इन्द्रभूति- माता प्रिथिवी पिता वसुभूति, गौत्र गौतम । मगध में गोवर, ग्राम के रहने वाले थे। इनके ५०० शिष्य थे। इनके मन में शंका थी कि जीव है या नहीं। इनकी शंका के समाधान रूप में हो भगवान की प्रथम दिव्य खिरी थी। इनको कुल आयु ६२ वर्ष की थी, जिसमें ५० वर्ष गृहस्थ दशा के ३० वर्ष छद्मस्थ दशा के और शेष १२ वर्ष केवलज्ञान दशा के थे । अग्निभूति-माता, पिता, गोत्र और जन्म स्थान इन्द्रभूति के समान । इनके शिष्यों की संख्या ५०० थी । इनके मन में शंका थी कि कर्म है या नहीं। ये भगवान के द्वितीय गणधर वने । इनकी कुल बाबु ७४ बर्ष की थी, जिसमें ४६ वर्ष गृहस्थ दशा के १२ वर्ष छद्मस्थ दशा के और १६ वर्ष कंवली दशा के थे । वायुभूति - माता, पिता, गोत्र और स्थान पूर्ववत् । इनके ५०० शिष्य थे। इन्हें सन्देह था कि शरीर और जीव भिन्न-भिन्न नहीं, एक ही हैं। इनकी आयु ७० वर्ष को थी, जिसमें ४२ वर्ष गृहस्थ दशा व १० वर्ष छद्मस्थ दशा के और १८ वर्ष केवली दशा के थे । व्यक्त- माता वारुणी, पिता घनमित्र, कोल्लाग सन्निवेश और भारद्वाज गोत्र । इनके ५०० शिष्य थे। इन्हें शंका थी कि पृथ्वी यादि भूत हैं या नहीं। इनकी कुल आयु ८० वर्ष की थी, जिसमें ५० वर्ष गृहस्थ दशा में, १२ वर्ष छदमस्थ दशा में ओर १८ वर्ष केवली दशा में व्यतीत किये । सुधर्म - माता का नाम भद्विला, पिता धर्मिल, स्थान कोल्लाग सन्निवेश और गोत्र अग्नि वैश्यायन । इनके ५०० शिष्य थे। इन्हें विश्वास था कि जो इस जन्म में जैसा है, वह आगामी जन्म में भी वैसा ही रहेगा । इनकी आयु १०० वर्ष की थी, जिसमें वर्ष 'गृहस्थ अवस्था के, ४२ वर्ष छद्मस्थ और ८ वर्ष अरहन्त दशा के थे ।

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