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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
विवाहित मानने की जो कल्पना की गई है, उसका कोई शास्त्रीय या परम्परामान्य प्राधार खोजने पर भी नहीं मिलता । प्राचीन भागम ग्रन्थों को अप्रामाणिक स्वीकार करके ही कल्पसूत्र की कल्पित बात को माना जा सकता है। ऐसा प्रतीत होता है, कल्पसूत्रकार म० बुद्ध के जीवन चरित्र और तत्सम्बन्धी बौद्ध ग्रन्थों से अत्यधिक प्रभावित रहा है। उसकी दृष्टि में बुद्ध द्वारा स्त्री पुत्र का त्याग अत्यधिक अनुकरणीय लगा प्रतीत होता है। इसो प्रादर्श को महावीर जीवन में प्रदर्शित करने की धन में वह महाबोर के विवाह को कल्पना कर बैठा। इतना ही नहीं उसे महावीर की एक पुत्री प्रियदर्शना के नाम से कल्पित करनी पड़ी। किन्तु पाश्चर्य है, कल्पसूत्रकार पत्नी यशोदा मोर पुत्री प्रियदर्शना की कल्पना का निर्वाह नहीं कर सका। इन दोनों को वह भागे चलकर बिल्कुल भुला बैठा । इसीलिये महावीर के दीक्षाकाल में या उसके मागे पीछे कहीं भी यशोदा और प्रियदर्शना का नामोल्लेख नहीं मिलता । कल्पसूत्र में प्रियदर्शना का विवाह जमालि के साथ हुमा बताया है। जमालि की पाठ स्त्रिया बताई गई हैं, किन्तु उनमें प्रियदर्शना का नाम न पाकर बड़ा पाश्चर्य होता है। ये सारी असंगतियां महावीर के विवाह की कल्पना के कारण ही उत्पन्न हुई हैं। वस्तुतः श्वेताम्बरों को शापील परम्मा दिएरा के समाग महाबोर को भविवाहित ही स्वीकार करती है।
___ महाबीर ने राज्य शासन में भाग लिया या नहीं, यदि लिया तो वह किस रूप में, इस बात के कोई संकेत प्राप्त नहीं होते । वैशाली में उत्खनन के फलस्वरूप कुछ ऐसी सीलें प्राप्त हुई हैं जिन पर कुमारामात्य लिखा
हुआ है। किन्तु इन सीलों का सम्बन्ध कुमार महावीर से था, इसका कोई प्रमाण नहीं है क्योंकि कमारामात्य और वैशाली गणतंत्र के शासन में महाराज सिद्धार्थ का कोई महत्वपूर्ण स्थान था, यह सिद्ध होना महावीर प्रभी शेष है । महाराज सिद्धार्थ कुण्डसाम के गणप्रमुख थे और कुण्डग्राम एक स्वतंत्र जिला
था। संभवत: कुण्डग्राम गण के राजा वैशाली संघ को संस्थागार के सदस्य होते थे। किन्तु इस नासे महावीर को वैशाली संघ में कुमारामात्य का महत्वपूर्ण पद प्राप्त था, यह निश्चयपूर्वक कहना कठिन है। संभबतः कुमारामात्य का पद गणप्रमुख चेटक के दस पुत्रों को प्राप्त था और उन्हें समात्य के अधिकार प्राप्त थे। कुण्ड ग्राम में जिसका वर्तमान नाम वासुकुण्ड है, अभी तक उत्खनन कार्य नहीं हुपा है भौर न वहाँ से अब तक कोई महावीर . कालीन सामग्नी उपलब्ध हुई है। इसलिए वैशाली से प्राप्त गुप्त काल की कुमारामात्य सम्बन्धी सीलों के साथ
महावीर का कोई सम्बन्ध था, यह विश्वासपूर्वक कहना कठिन है । प्रमाण के बिना केवल कल्पना के बल पर पक्ष और विपक्ष दोनों ही पोर तर्क बिये जा सकते हैं। प्रारम्भ से ही महावीर की प्रवृत्ति भोगों की अोर नहीं थी। वे प्रायः एकान्त मैं बैठ कर संसार के स्वरूप
पर गहन विचार किया करते और विचार करते करते पात्म चिन्तन में लीन हो जाते । उनकी जीवन्त स्वामी प्रकृति अन्तर्मुखी थी। उन्हें सभी प्रकार की सुख सामग्री उपलब्ध थी, किन्तु सुख साधनों में की प्रतिमा . उनकी धासक्ति नहीं थी। वे अन्तश्चक्षुयों से देखते-भोगों में प्रतृप्ति छिपी हुई है, यौवन का
परिणाम बुढ़ापा है, जीवन का अन्त मृत्यु है, संयोग में वियोग का भय छिपा है, शरीर के रोम रोम में रोग झांक रहे हैं। प्राणी सुख प्राप्ति का प्रयत्न करता है और दुःख प्राप्त होता है। इष्ट की संयोजना में पनिष्ट हाय पाता है। इसका सारा प्रयत्न क्षणभंगुर के लिये है। मैं पमरत्व के लिए पुरुषार्थ करूंगा। मेरा काय सुख है किन्तु ऐसा सुख जो प्रविनश्वर हो, स्वाधीन हो।
उनकी चिन्तनधारा ने उन्हें भोगों के प्रति उदासीन बना दिया। वे अपना अधिक समय साधना में व्यतीत करने लगे। अपने प्रासाद के एकान्त कक्ष में ध्यानलीन हो जाते और अमरत्व की राह खोजते रहते। उनको इस योग साधना की स्पति दूर दूर तक फैल गई। जन जन के मन में उनके प्रति असीम धंद्या उत्पन्न हो गयी। श्रद्धातिरेक में अनेक लोगों ने उनके जीवन काल में ही उनकी मूर्तियां बनाकर उनकी पूजा करना प्रारम्भ कर दिया। ये मतियाँ जीवन्त स्वामी की मूर्तियाँ कहलाती थीं। जीवन्त स्वामी की एक चन्दन-मूर्ति सिन्धु सौवीर नरेश राजा . उदायन की महारानी प्रभावती के पास भी थी। मृत्यु काल निकट जामकर महारानी ने वह मूर्ति प्रपनी एक प्रिय दासो . को दे दी जिससे उसकी पूजा होती रहे और स्वयं ने दीक्षा ले ली। परन्ति मरेश पण्डप्रयोत इस मूर्ति को प्राप्त