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भगवान महावीर
दिगम्बर परम्परा के सभी शास्त्र महावीर को अविवाहित मानते हैं । प्रसिद्ध ग्रन्थ तिलोयपण्णत्ती में स्पष्ट उल्लेख है -
'मी मल्ली वीरो कुमार कालम्मि वासुपूज्जो य ।
पासो वि य गदितया सेसजिणा रज्जचरमम्मि ||४|६७०
अर्थात् भगवान नेमिनाथ, मल्लिनाथ, महावीर, वासुपूज्य और पार्श्वनाथ इन पांच तीर्थकरों ने कुमार काल में मोर शेष तीर्थंकरों ने राज्य के अन्त में तप को ग्रहण किया ।
इसी के अनुकरण पर पद्मपुराण में इस सम्बन्ध में लिखा हैवासुपूज्यो महावीरी मल्लिः पार्थो यदुत्तमाः । कुमार निर्गता गेहात्पृथिवोपतयोऽपरे ।। २०।६७
इन शास्त्रीय उल्लेखों से दो बातों पर प्रकाश पड़ता है - ( १ ) ये पाँच तीर्थकर राज्य का भोग किये बिना दीक्षित हो गये । (२) इन्होंने कुमारकाल में अर्थात् अविवाहित दशा में ही दीक्षा ग्रहण की।
ये पांचों तीर्थकर पंचबालयति के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। पुरातात्त्विक साक्ष्य भी इसका समर्थन करते हैं। ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में निर्मित खण्डगिरि गुफाओं में, कुषाण काल में निर्मित मथुरा कलाकृतियों में तथा पश्चात्कालीन मूर्तियों में पंचबालयतियों की मूर्तियां उपलब्ध होती हैं। इससे यह स्वीकार करने में कोई सन्देह नहीं रहता कि उपर्युक्त पांच तीर्थंकर अविवाहित रहे, यह मान्यता परम्परागत रही है ।
दिगम्बर शास्त्रों के आधार और अनुकरण पर निर्मित प्राचीन श्वेताम्बर आगमों में भी इसी मान्यता का समर्थन प्राप्त होता है । भगवती सूत्र, समवायांग, स्थानांग और आवश्यक नियुक्ति में यशोदा के साथ महावीर के विवाह होने और उनके प्रियदर्शना नामक पुत्री के होने का कोई उल्लेख नहीं मिलता और पांच कुमार प्रवजित तीर्थकरों में महावीर का नाम मिलता है। महावीर के विवाह की सर्वप्रथम चर्चा कल्पसूत्र में आई है । उसके पश्चात् बने हुए श्रागम ग्रन्थों, नियुक्तियों और संस्कृत के चरित्र ग्रन्थों में कल्पसूत्र का ही अनुकरण किया गया है और इस नवीन कल्पना के समर्थन के लिए कुमार शब्द का अर्थ बदलने का भारी प्रयत्न किया गया है :
समवायांग सूत्र नं० १६ में १६ तीर्थंकरों का घर में रहकर और भोग भोगकर दीक्षित होना लिखा है ! टीकाकार श्रभयदेव सूरि ने भी अपनी वृत्ति में 'शेषास्तु पंच कुमारभाव एवेत्याह' कहकर इसे और स्पष्ट किया है। स्थानांग सूत्र के ४७६ वें सूत्र में भी पांच तीर्थंकरों को कुमार प्रव्रजित लिखा है। आवश्यक नियुक्ति में तो इसे और अधिक स्पष्ट किया है । वे गाथायें इस प्रकार हैं
वीरं अरिनेम पातं मल्लि च वासुपूज्जं च । एए मुत्तूण जिणे प्रवसेसा श्रासि रामाणो ॥ २४३ ॥ रायकले विजाया विसुद्धवसेसु खतिप्रकुलेसु ।
ण यइत्थिश्राभिसेना कुमार वासंमि पव्वइया ॥ २४४||
इन गाथाओं को अधिक सुस्पष्ट करने के लिए आवश्यक नियुक्ति में दो गाथायें श्रीर दी गई हैं जो इस प्रकार हैं
वीरो रिट्टणेमी पास मल्लो वासुपूज्जो य ।
पढमवए पव्बइया सेसा पुरा पच्छिमवयंसि ॥ २४८॥
इस गाथा में प्राये हुए 'पढमवए' पद का अर्थ करते हुए टीकाकार मलयगिरि ने लिखा है- प्रथमवयसि कुमारत्वलक्षणे प्रव्रजिताः, शेषाः पुनः ऋषभस्वामिप्रभृतयो मध्यमे दर्यास, यौवनत्व लक्षणे वर्तमानाः प्रदर्जिताः ।
नियुक्तिकार ने एक स्थान पर तो और भी स्पष्ट लिखा है - गामायारा विषया निसेविता जे कुमार बज्जेहि।' इसमें बताया गया है कि पांच तीर्थंकरों ने विषय भोगों का सेवन नहीं किया ।
दिगम्बर परम्परा के शास्त्र और उनके बाधार पर बने इन श्वेताम्बर आगमों में इस विषयक ऐकमत्य सिद्ध करता है कि उक्त सीर्थंकरों ने विवाह नहीं किया। किन्तु बाद में बने हुए कल्पसूत्र आदि ग्रन्थों में महावीर को