Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 376
________________ ३६१ भगवान महावीर महाबीर अत्यन्त साधनामय और अनासक्त जीवन लेकर उत्पन्न हुए थे। आठ वर्ष की आयु में उन्होंने प्रणव्रत धारण कर लिये थे। वे तीर्थकर थे। तीर्थकर जन्मजात ज्ञानी होते हैं। वे संसार के जीवों को कल्याण की शिक्षा देने के लिये उत्पन्न होते हैं। इसलिये जगद्गुरु कहलाते हैं। उन्हें अक्षर-जान देसके, ऐसा कोई गुरु नहीं होता। सारा संसार और उसका स्वभाव ही उनकी पुस्तक होती है। वे अपने अन्तर्मन से उसे गहराई से देखते हैं, विवेक की बुद्धि से उस पर गहन मनन और चिन्तन करते हैं और प्रात्मा के समग्र उपयोग से उसका सारतत्व ग्रहण करके निरन्तर अमृतत्व की ओर बढ़ते जाते हैं। महावीर चिन्तनशील अनासक्त योगी थे। वे जन्म से ही मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान इन तीन शानों के धारक थे। तीन ज्ञानधारक को अल्पज्ञानी जन क्या पढ़ा सकता है। श्वेताम्बर पागम प्रावश्यक चणि भाग १ में बताया गया है कि जब महावीर आठ वर्ष के हुए, तब माता-पिता ने शुभ मुहूर्त देखकर बालक महावीर को अध्ययन के लिये कलाचार्य के पास भेजा। सौधर्मेन्द्र को भवधिज्ञान द्वारा ज्ञात हुया कि तीर्थंकर महावीर को कलाचार्य के पास पढ़ने के लिये भेजा जा रहा है तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। वह एक क्षण का भी फ्लिम्ब किये बिना एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण करके कलाचार्य के गुरुकुल में जा पहुंचा, जहाँ बालक महावीर और उनके माता पिता थे। इन्द्र विद्यागुरु और जनसाधारण को तीर्थकर की योग्यता से परिचित कराना चाहता था। इन्द्र ने प्रभु को मन ही मन नमस्कार किया और अत्यन्त बिनय के साथ प्रभु से व्याकरण सम्बन्धी जटिल प्रश्न पूछने लगा। प्रभु ने उन प्रश्नों के यथार्थ और युक्तिसंगत उत्तर देकर सबको स्तब्ध कर दिया। प्राचार्य ने भी अपनी कुछ शंकायें प्रम के समक्ष रक्खीं, जिनका समाधान प्रभु ने क्षण भर में कर दिया। तब प्राचार्य बोले—जो बालक सभी विषयों का ज्ञाता है, उसे मैं क्या ज्ञान दे सकता हूँ। तब ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र बोला-जो बालक आपके समक्ष उपस्थित, है यह सामान्य बालक नहीं है । वह तीन ज्ञान का धारी तीर्थकर है । 'बह गुरूणां गुरु, है । वह संसार में पढ़ने नहीं पढ़ाने माया है। यह कह कर इन्द्र ने और साथ ही प्राचार्य ने बाल प्रभु के चरणों में नमस्कार किया। महाराज सिद्धार्थ प्रौर माता त्रिशला प्रसन्न होकर बोले-"मोह में हम यह भुल ही गये थे कि कुमार तो जगद्गुरु है। पावश्यक चूर्णि भाग १ में यह भी उल्लेख है कि वृशक ने हालकदीर के साथ हुए प्रश्नोत्तरों का संग्रह करके 'ऐन्द्र व्याकरण' की रचना की। चिरकमार महावीर-बालक महावीर धोरे-धीरे बाल्यावस्था और किशोर वय पारकर यौवन अवस्था में पहुंचे। सात हाय उन्नत उनकी देहयष्टि थी। उनके शरीर पर १००८ शुभ लक्षण सुशोभित थे । जन्म से ही स्वेद रहितता, निर्मल शरीर, दुग्ध के समान धवल रक्त, वजवृषभनाराचं संहनन, समचतुरस्त्र संस्थान, अनुपम रूप, चम्पक पुष्प के समान शरीर में सुगन्धि, अनन्त बलवीर्य और हितमित मधुर भाषण ये असाधारण दस विशेषतायें थीं। उनके शारीर का वर्ण तप्त स्वर्ण के समान था। वे तेज, मोज और सौन्दर्य की खान थे। उनका रूप लावण्य कामिनियों की स्पृहा की वस्तु था। एक ही शब्द में कहें तो वे त्रिलोकसुन्दर थे। ___ वे राजकुमार थे। गणराज्य के नियमानुसार उन्हें कुमारामात्य के सम्पूर्ण अधिकार और भोग की सम्पर्ण सामग्री उपलब्ध थी। बल और पौरुष में सम्पूर्ण वज्जिगण में कोई उनकी समानता नहीं कर सकता था। सौन्दर्य में वे देवकमारों को लज्जित करते थे। उनकी अवस्था भी विवाह योग्य थी। किन्तु उनकी वृत्ति प्रात्मकेन्द्रित थी। काम और कामिनी की कामना उनके मन में क्षण भर के लिये भी कभी न जागी। क्योंकि वे योगी थे। योगी की पहचान ही यह है कि जब संसार के प्राणी संसार-व्यवहार में जागृत रहते हैं, उस समय योगी संसार व्यवहार में सोया रहता किन्तु वह आत्म-दर्शन में सदा जागृत रहता है । जो सदा पात्मानुभव का रसास्वाद करता रहता है, उसे कामिनियों का कमनीय रूप और काम की स्पृहा कब माकर्षित कर सकती है। महावीर की स्वयं की तो साधना थी ही, फिर उनका पारिवारिक वातावरण और पृष्ठभूमि भी उनकी सम्बना में सहायक की। प्राचारांग सूत्र में स्पष्ट उल्लेख है--'समणस्स णं भगक्यो महावीरस्स पम्मापियरो पासाबधिज्जा सम्णोदासगा या वि होत्या ।' अर्थात् श्रमण भगवान महावीर के माता पिता पापित्य सम्प्रदाय के श्रमणोपासक थे।

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