Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 375
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास अनुकरण पर नात शब्द का प्रयोग होने लगा। इससे नाथ वंश बदलते बदलते ज्ञातृवंश बन गया और महावीर ज्ञातृवंशी बन गये । ३६० नामकरण – सौधर्मेन्द्र ने सुमेरु पर्वत पर भगवान का अभिषेक करने के बाद उनके दो नाम र वोर और वर्धमान | ये दोनों ही नाम सार्थक थे। वे वीर थे। उनके उत्पन्न होने पर उनके पिता सिद्धार्थ की श्री विभूति, प्रभाव, धन-धान्य आदि सभी में वृद्धि हुई थी । इसलिए उनका वर्धमान नाम वस्तुतः सार्थक था । श्वेताम्बर साहित्य में भगवान का नामकरण पिता सिद्धार्थ ने किया, ऐसा उल्लेख मिलता है । एक दिन बाल भगवान रत्नजड़ित पालने में झूल रहे थे। तभी वहाँ संजय गौर विजय नामक दो चारण मुनि आए । उन्हें किसी जैन सिद्धान्त में सन्देह उत्पन्न हो गया था । किन्तु बाल भगवान के देखते ही उनका सन्देह दूर हो गया। तब उन्होंने बड़ी भक्ति से बालक का नाम सन्मति रक्खा | बाल लीलाएँ इन्द्र की आज्ञा से कुबेर प्रतिदिन भगवान की ग्रायु और इच्छा के अनुसार स्वर्ग की सारभूत भोगोपभोग सामग्री स्वयं लाया करता था और सदा खर्च कराया करता था। कुमार वर्धमान बाल्यावस्था से ही गम्भीर, शान्स, उदात्त एवं संयम के धारक थे। वर्धमान की खेलकूद में विशेष रुचि नहीं थी, फिर भी वे समवयस्क बालकों के साथ कभी कभी खेलकूद में भाग लिया करते थे। कभी कभी देव भी बाल रूप धारण करते थे । इससे उनके मन में बड़ा सन्तोष होता था । एक दिन कुमार वर्धमान अपने बाल साथियों के साथ आमली क्रीड़ा का खेल खेल रहे थे । इस खेल में किसी एक वृक्ष को केन्द्र मान लिया जाता है । सब बालक एक साथ उस वृक्ष की भोर दौड़ते हैं । जो बालक सबसे पहले उस वृक्ष पर चढ़कर उतर कर पाता है, वह विजयी माना जाता है और वह पराजित बालकों के कन्धे पर चढ़ कर वहाँ तक जाता है जहाँ से दौड़ प्रारम्भ हुई है । एक दिन सौधर्म इन्द्र की सभा में चर्चा चल रही थी कि इस समय भूतल पर सबसे अधिक शूरवीर कीन है । इन्द्र कहने लगा- इस समय सबसे अधिक शूरवीर वर्धमान स्वामी हैं। कोई देव दानव उन्हें पराजित नहीं कर सकता । यह सुनकर संगम नामक एक देव को इन्द्र की बात पर विश्वास नहीं हुथा । वह उनके बल की परीक्षा लेने के लिये प्रमद बन में आया जहाँ कुमार वर्धमान अपने बाल सखाओं के साथ खेल रहे थे। उस देव ने माया से एक बिशाल सांप का रूप धारण कर लिया और उस वृक्ष की जड़ से स्कन्ध तक लिपट गया। उस भयंकर सांप को देखकर सभी बालक भय के मारे बहाँ से अपने प्राण बचाकर भाग गये । केवल कुमार वर्धमान ही वहाँ रह गये । वे सातिशय बल के धारी थे। उनके मन में प्रातंक या भयनाममात्र को भी न था । वे निर्भय होकर उस सर्प के ऊपर चढ़कर इस प्रकार कीड़ा करने लगे, मानो वे माता के पलंग पर ही क्रीड़ा कर रहे हों। वे बहुत समय तक सर्प के साथ नाना प्रकार की कीड़ा करते रहे । अन्त में संगम देव ने अपनी पराजय स्वीकार करली (उत्तरपुराण) । अशग कवि ने महावीर चरित्र में इस घटना का सजीव चित्रण करते हुए लिखा है कि- वटवृक्षमथैकदा महान्तं सह डिभैरधिह्य वर्धमानम् । रमाणमुवी संगमारूपो । fagueत्रासयितुं समाससाद । १७६५-८ संगम देव ने पराजित होकर अजमुख मानव रूप धारण करके कुमार वर्धमान को एक कन्धे पर तथा उनके एक बालसखा पक्षधर को दूसरे कन्धे पर बैठा लिया तथा दूसरे बालसखा काकघर का उंगली पकड़कर उन्हें सादर घर तक पहुंचाया। इन दोनों सखाओं के नाम चामुण्डराय पुराण में मिलते हैं। इस भजमुख देव का नाम पुरातत्व वेत्ता हरिनैगमेश बतलाते है तथा हरिर्नंगमेश द्वारा कुमार वर्धमान और उनके दो बालसखाओं को कन्धे पर बैठाने तथा जंगली पकड़ने का दृश्य कुषाणकालीन एक शिलाफलक पर अंकित है और मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित है। संगम देव वर्धमान कुमार के शौर्य, साहस पर निर्भयता से अत्यधिक प्रभावित हुआ । उसने बड़ी भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति की और कहा-प्रभो! आपका बल विक्रम अतुलनीय है । आप संसार में प्रजेय हैं। सचमुच ही आप महावीर हैं। तभी से श्रापका नाम संसार में महावीर के रूप में विख्यात हो गया ।

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