Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 373
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास विरोध के लिये । जब सब सदस्यों को शलाकायें मिल जाती तो बाकी बची हई शलाकामों की गणना गणपति करते थे और छन्द-निर्णय घोषित कर देते थे। इस निर्णय को सभी स्वीकार करते थे । गण परिषद के राजभवन का नाम संथागार था जहाँ परिषद की बैठकें होती थीं। वज्जी-सघ के निकट ही मल्ल गणसंघ और काशी कोल गणसंघ थे। इन संघों में से किसी संघ के ऊपर आपत्ति माने पर सन्धि के अनुसार तीनों संघों को युद्ध उद्वाहिका की सन्निपात भेरी की विशेष बैठक होती थी। इसमें महासेनापति का निर्वाचन लिया जाता था। वह फिर अपनी युद्धउवाहिका का संगठन करता था। वैशाली का वैभव अपार था। उसमें ७७७७ प्रासाद, ७७७७ कटागार, ७७७७ पाराम और ७७७७ पुष्करिणियां थीं। उसमें ७००० सोने के कलश वाले महल, १४००० चांदी के कलश वाले महल तथा २१००० तांबे के कलश वाले महल थे। इन तीनों प्रकार के महलों में क्रमश: मनः मध्दा म सराय गुजरे लोग । वैशाली में न्याय व्यवस्था इतनी सुन्दर थी कि कोई अपराधी दण्ड पाये बिना बच नहीं सकता था और निरपराधी दण्ड पा नहीं सकता था। विवाह के सम्बन्ध में भी वहाँ बड़े कड़े नियम थे । वैशाली में उत्पन्न कोई स्त्री बैशाली से बाहर विवाह नहीं कर सकती थी। प्रार्थना करने पर किसी लिच्छवी के लिये पत्नी का चुनाव लिच्छबी गण करता था । अन्य नगरों की तरह यहाँ भी दास प्रथा थी, किन्तु एक बार जो दास वैशाली में पा जाता था, वह फिर बाहर नहीं जा सकता था और उसके साथ मनुष्योचित व्यवहार होता था। इस गण संघ में एक नियम प्रचलित था कि नगर की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी कन्या विवाह नहीं कर सकती थी। उसे नगरवधु या नगर शोभिनी बनाकर सर्वभोग्या बना दिया जाता था। उसे गण की पोर से नत्य, गान, वार्तालाप पौर स्वागत करने की विधिवत् शिक्षा दी जाती थी। १८ वर्ष की अवस्था होने पर उसे गण परिषद जनपद कल्याणी का सम्मानपूर्ण पद प्रदान करता था और मंगल पुष्करिणी में मंगल स्नान का महोत्सव किया जाता था। तब वह नगरवधु घोषित की जाती थी । गण की मोर से उसे अलंकृत प्रासाद और धन धान्य प्रचुर परिमाण में दिया जाता था, जिससे वह वैभवपूर्ण जीवन विताती हुई नागरिकों का यथेच्छ मनोरंजन कर सके। वैशाली के लिच्छवी स्वातन्त्र्यप्रिय और मोजी स्वभाव के थे। उनमें परस्पर में बड़ा प्रेम पा। यदि कोई लिच्छवी बीमार पड़ जाता था तो अन्य सभी लिच्छवी उसे देखने पाते थे । उत्सव के वे बड़े शौकीन थे । सुन्दर रंगीन वस्त्र पहनने का उन्हें बड़ा शौक था। इसीलिये बुद्ध ने एक बार मानन्द से कहा पा-पानन्द ! जिन्होंने प्रायस्त्रिया स्वर्ग के देव नहीं देखे हैं, ये वैशाली के इन लिच्छवियों को देखलें। वे बड़े शिष्ट, विनयशील, सुसंस्कृत और सुरुचि सम्पन्न थे। वैशाली के गणपति का नाम चेटक था । उनको रानी का नाम सुभद्रा था। उनके १० पुत्र और ७ पुत्रियाँ थीं ! उनका पुत्र सिहभद्र वैशाली गण का सेनापति था । ७ पुत्रियों में सबसे बड़ी त्रिशला थी जो कुण्डग्राम के राजा सिद्धार्थ को विवाही गई थी। इन्हों के पुत्र महाबोर तीर्थंकर थे। ये कुण्डग्राम सन्निवेश के गणपति पे और राजा कहलाते थे।मगावती का विवाह वत्सनरेश शतानीक के साथ हुआ था। सुप्रभा का विवाह दशार्ण देश के हेमच्छ के नरेश दशरथ के साथ, प्रभावती का विवाह कच्छदेश को रोरुक नगरी के नरेश उदायन के साथ तथा चेलना का विवाह मगधनरेश श्रेणिक बिम्बसार के साथ हुआ था । ज्येष्ठा पौर चन्दना ने दीक्षा लेली। वैशाली संघ अत्यन्त वैभवसम्पन्न और विकसित था। इसका विनाश श्रेणिक के पुत्र अजातशत्रु ने किया। युद्ध में वैशाली पराजित होने वाला नहीं था, प्रतः प्रजातशत्र ने अपने घरों द्वारा वैशाली में फूट डाल दी। इससे वैशाली निर्वल होगई मौर युद्ध में पराजित होगई । प्रजातशत्रु ने वैशाली को समाप्त कर दिया। इसके कुछ समय पश्चात् वैशाली पुन: स्वतन्त्र हो गई यद्यपि उसका वैभव और शक्ति पहले जैसी नहीं हो पाई। फिर इसका विनाश गुप्त वंश के सम्राट् समुद्रगुप्त ने किया। उसने तो वैशाली को बिलकुल खण्डहर ही बना दिया। इसके बाद वैशाली कभी पनप नहीं पाई। यह कितनी विडम्बना है कि वैशाली का विनाश करने वाले अजातशत्रु और समुद्रगुप्त दोनों ही सम्राट् वैशाली के हो दौहित्र थे । उन दोनों की मातायें वंशाली की पुत्रियां थीं। दोनों ही सम्राटों ने अपनी ननिहाल को बर्बाद कर दिया। इससे भी बड़ी विडम्बना यह है कि समुद्रगुप्त के पिता चन्द्रपुप्त

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