Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 371
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास इस जन्म कुण्डली में ग्रह पत्यन्त उच्च दशा में स्थित हैं। इन ग्रहों में उत्पन्न होने वाला बालक निश्चय हो लोकपूज्य महापुरुष होता है। महावीर भी ऐसे महापुरुष थे जिनकी समानता तीर्थंकरों के अतिरिक्त अन्य कोई मानव नहीं कर सकता । उपयुक्त प्रच्युतेन्द्र ही भायु पूर्ण होने पर महारानो त्रिशला के गर्भ से उत्पन्न हुमा था। जिस समय यह महाभाग बालक उत्पन्न हुमा, उस समय समस्त प्रकृति मानन्द में भर उठी । दिशायें निर्मल हो गई। शीतल मंद सुरभित पवन बहने लगा। माकाश से फुहारें बरसने लगीं। बंदीजन मंगल पाठ कर रहे थे। सौभाग्यवती ललनाऐं नृत्य कर रही थी। बाघों की मंगल ध्वनि हो रही थी। मानव समाज हर्षोत्फुल्ल था। तीर्थकर महावीर जब उत्पन्न हुए थे, उस समम तीनों लोकों के जीवों को शांति का अनुभव हुमा था। पाल्हाद के इस अवसर पर देव और इन्द्र ही पीछे क्यों रहते। चारों जाति के देव और उनके इन्द्र तीर्थकर प्रभु का जन्म हमा जानकर भगवान के दर्शन करने और उनका जन्म कल्याणक मनाने के लिए कुण्डग्राम में एकत्रित हुए। सौधर्मेन्द्र को माज्ञा से शची प्रसूतिगृह में गई । उसने जाकर तीर्थंकर प्रभु और माता को नमस्कार किया। शची भक्तिप्लाबिसरमों जे कभी सरकार को देखती, दिसक रूप त्रिभुवनमोहन था और जिसके तेज से सारा नन्द्यावर्त प्रासाव भालोकित था। फिर वह तीर्थकर माता की मोर देखती और मन में सोचती-नारी पर्याय तो इनकी धन्य है, सार्थक है, जिनके गर्भ से त्रिलोकपूज्य बालक ने जन्म लिया है। इससे इनका मातृत्व भी महनीय हो गया है और जो जगन्माता के उच्च पद पर प्रतिष्ठित हो गई हैं। कितनी पुण्याधिकारिणी हैं ये । हे जगन्मातः। तुम्हें लाख बार प्रणाम है, कोटि कोटि प्रणाम है। तभी शची को भक्ति तरंगित क्षणों में अपने कर्तव्य का स्मरण हो पाया--बाहर प्रसंख्य देव देवियाँ प्रतीक्षारत खड़े हैं। उसने माता को माया निद्रा में सुलाकर और उनके बगल में मायामय बालक सुलाकर लोकबन्ध प्रभु को अपने अंक में ले लिया । प्रनु का अंग स्पर्श होते ही शची का सम्पूर्ण गात रोमांचित हो पाया । मन प्रपूर्व. पुलक से भर उठा । प्रभु को पाकर मादो वह अपने को भूल गई । इसी अर्ष मूच्छित दशा में बाल प्रभु को लाकर सौधर्मेन्द्र को दे दिया। किंतु उसके गात में जो स्पर्शजन्य पुलक भर गई, वह तो जैसे संस्कार बनकर गात में स्पाईबन गई। इन्द्र ने बाल प्रभु को ग्रंक में लिया तो जैसे उसकी भी वही दशा होगई। वह प्रभु के प्रनिन्धरूप को निनिमेष निहारता रहा किन्तु दृप्ति नहीं हो पाई। रूप का प्रसीम विस्तार और पक्षमों की सीमित परिषि ! तन उसने हजार नेत्र बनाकर प्रभु की रूप माधुरी का पान करना प्रारम्भ किया। भक्ति की महिमा प्रचिन्त्य है । फिर इन्द्र भगवान को गोद में लेकर ऐरावत हाथी पर बैठा । ऐशानेन्द्र भगवान के ऊपर छत्र तानकर खड़ा हो गया और सानत्कुमार तथा माहेन्द्र स्वर्ग के इन्द्र चमर ढोरने लगे। वे भगवान को लेकर सुमेरु पर्वत पर पहुँचे और वहा क्षीरसागर के जल से पूर्ण १००८ कलशों से भगवान का अभिषेक किया। सौधर्मेन्द्र की शची ने भगवान का श्रृंगार किया और भगवान को लेकर देव समूह पुनः कुण्ड ग्राम लौटा 1 वहाँ पाकर शची बालक को लेकर प्रसूति गृह में गई और बालक को माता के पास सुला दिया। इन्द्र ने महाराज सिद्धार्थ को देवों द्वारा मनाये गये जन्म महोत्सव के सनाचार सुनाये, उनकी पूजा की पौर भानन्द नाटक किया। इस प्रकार जन्म कल्याणक महोत्सव मनाकर देवगण अपने-अपने स्थानों को दापिस चले गये। पुत्र जन्म की खुशी में महाराण सिद्धार्थ ने राज्य के कारागार से बन्दियो को मुक्त कर दिया। उन्होंने याचकों और सेवकों को मुक्तहस्त दान दिया। राज्य भर में दस दिन तक नागरिकों ने पुत्र-जन्मोत्सव बड़े उल्लास मौर समारोह के साथ मनाया। भगवान महावीर कुण्डपुर में उत्पन्न हुए थे । जैन वाङ्मय में कुण्डपुर की स्थिति स्पष्ट करने के लिए 'विदेह कुण्डपुर' अथवा 'विदेह जनपद स्थित कुण्डपुर' नाम दिये गये हैं। संभवतः इसका कारण यह रहा कि उस समय कुण्डपुर नाम के कई नगर थे। यह कुण्डपुर विदेह देश में स्थित था । यह विदेह देश गण्डको जन्मनगरी शाली नदी से लेकर पम्पारण्य तक का प्रदेश था। इसे तीरभुक्त भी कहा जाता था। यह देश गंगा पौर हिमालय के मध्य में था। इसकी सीमाये इस प्रकार थी-पूर्व में कौशिकी (कोसी), पश्चिम

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