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भगवान महावीर
गण्डकी, उत्तर में हिमालय और दक्षिण में गंगा नदी । इसका क्षेत्रफल इस प्रकार बताया गया है-पूर्व से पश्चिम की पोर २४ योजन तथा उत्तर से दक्षिण की ओर १६ योजन। वैशाली, मिथिला, कुण्डपुर आदि नगर इसी विदेह अथवा तीरभुक्त प्रदेश में थे ।
दिगम्बर साहित्य के समान श्वेताम्बर साहित्य में भी महावीर को विदेहवासी, विदेह के दौहित्र और उनकी माता त्रिशला को विदेहदत्ता कहा गया है । श्वेताम्बर साहित्य में कुण्डपुर के कई नाम मिलते हैं, जैसे कुण्डग्राम, क्षत्रिय कुण्ड, उत्तर क्षत्रिय कुण्डपुर, कुण्डपुर सन्निवेश, कुण्डग्राम नगर, क्षत्रिय कुण्डग्राम । श्वेताम्बर साहित्य में महावीर को एक श्रोर विदेहवासी और विदेह के दोहित्र बताया है तो दूसरी ओर उन्हें वैशालिक भी कहा गया है। ये दोनों कथन परस्पर विरोधी नहीं हैं । उस समय कुण्डग्राम वैशाली नगरी में सम्मिलित था। इसलिए महावीर को जनपद विदेह की दृष्टि से विदेह कहा गया और कुण्डग्राम वंशाली का एक उपनगर था, इसलिए उन्हें वैशालिक कहा गया | सारांशतः कुण्डग्राम विदेह जनपद में था और वह वैशाली का एक उपनगर था ।
प्राचीन वाङ्मय के अनुसार वैशाली और कुण्डग्राम की स्थिति इस प्रकार थी- दक्षिण पूर्व में वैशाली प्रव स्थित थी, उत्तर पूर्व में कुण्डपुर था और पश्चिम में वाणिज्यग्राम था । वस्तुतः वैशाली के तीन भाग या तीन जिले थे- वैशाली, कुण्डग्राम और वाणिज्यग्राम । वैशाली और कुण्डग्राम निकट अवस्थित थे । ये दोनों गण्डक नदी के पूर्वी तट पर थे तथा वाणिज्यग्राम गण्डक के पश्चिमी तट पर स्थित था।
कुण्डपुर के दो भाग थे - क्षत्रिय कुण्डपुर सन्निवेश और ब्राह्मण कुण्डपुर सन्निवेश । क्षत्रिय कुण्डपुर उत्तर में था और ब्राह्मण कुण्डप दक्षिण में था । क्षत्रिय कुण्डपुर में प्रायः ज्ञातृवंशी क्षत्रिय रहते थे और ब्राह्मण कुण्डपुर में प्रायः ब्राह्मण रहते थे । ब्राह्मण कुण्डग्राम के उत्तर-पूर्व में बहुशाल चैत्य था । क्षत्रिय कुण्डपुर के उत्तर-पूर्व में कोल्लाग सन्निवेश था । इसमें भी ज्ञातृवंशी क्षत्रिय रहते थे । क्षत्रिय कुण्डपुर के बाहर ही ज्ञातृखण्ड वन था । यह भा ज्ञातृवंशी क्षत्रियों का था और इसी वन या उद्यान में भगवान महावीर ने दीक्षा ली थी।
वाणिज्यग्राम में प्रायः बनिये व्यापारी रहते थे । इसके ईशान कोण में द्य ुति पलाश चंत्य और उद्यान थी । ये दोनों भी ज्ञातृवंशी क्षत्रियों के थे ।
कुण्डपुर के निकट ही कमर ग्राम बाबाद था । यहाँ प्रायः लुहार आदि कर्मकरों को बस्ती थी। इसी गाँव की शास्त्रों में कूर्मग्राम प्रथवा कूल ग्राम कहा गया है, जहाँ भगवान महावीर का प्रथम बाहार हुआ था
वैशाली गणराज्य को वज्जि संघ प्रथवा लिच्छवी गणसंघ कहा जाता था। इस संघ में विदेह का वाज संघ और वैशाली का लिच्छवी संघ सम्मिलित था । दोनों की पारस्परिक सन्धि के कारण विदेह के गणप्रमुख चेटक को इस संघ का गणप्रमुख चुना गया और इस संघ की राजधानी वैशाली बनी । इस संघ में अष्टकुल के नौ गण थे । भ्रष्टकुलों के नाम शास्त्रों में इस प्रकार मिलते हैं- भोगवंशी, इक्ष्वाकुवंशी, ज्ञातृवंशी, कौरववंशी, लिच्छविवंशी, उग्रवंशी, विदेह कुल और बृजकुल । ये सभी लिच्छवी थे और इनमें ज्ञातृवंशी सर्वप्रमुख थे । लिच्छवी होने के कारण ही ये ग्रष्टकुल परस्पर संगठित रहे। इस संघ में शासन का अधिकार इन अष्टकुलों को ही प्राप्त था। शेष नागरिकों को शासन में भाग लेने का अधिकार नहीं था । लिच्छवी गण ही अपने सदस्यों को चुनता था । प्रत्येक सदस्य को राजा कहा जाता था। ऐसे राजानों की संख्या ७७०७ थी। कहीं कहीं इनकी संख्या १ लाख ६८ हजार बताई है। जब नवीन राजा का चुनाव होता था, उस समय उस राजा का अभिषेक एक पुष्करिणी में किया जाता था। इस पुष्करिणी का नाम अभिषेक पुष्करिणी अथवा मंगल पुष्करणी था । इस पुष्करिणी में लिच्छवियों के अतिरिक्त अन्य किसी को स्नान मज्जन करने का अधिकार नहीं था । इस पर सशस्त्र प्रहरी रहते थे । यहाँ तक कि इसमें कोई पक्षी भी चोंच नहीं मार सकता था। इसके लिये इसके ऊपर लोहे की जाली रहती थी। समय-समय पर इसका जल बदला
जाता था ।
लिच्छवी संघ में सभी निर्णय सर्वसम्मत होते थे । यदि कभी कोई मतभेद होता था तो उसका निर्णय छन्द (वोट) के आधार पर होता था। शलाका ग्राहक छन्द शलाकायें लेकर सदस्यों के पास जाते थे । ये शलाकायें दो प्रकार की होती थीं- काली और लाल लाल शलाका प्रस्ताव के समर्थन के लिये होती थीं और काली शलाका