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भगवान महावीर
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को आया, तब उन्होंने अर्ध निद्रित दशा में प्रत्यन्त शुभपरिणामी सोलह स्वप्न देखे। इन सोलह स्वप्नों में उन्होंने (१) श्वेत ऐरावत गज ( २ ) वृषभ (३) आकाश की ओर उछलता हुआ स्वर्ण अवालों वाला शुक्ल वर्ण सिंह (४) कमलासना और स्वर्ण कलशों द्वारा गजों द्वारा अभिषिक्त लक्ष्मी (५) दो सुगन्धित पुष्पमालायें (६) ताराafe मण्डित पूर्ण चन्द्र ( ७ ) उदित होता हुआ सूर्य (८) कमल पत्रों से बाच्छादित दो स्वर्ण कलश ( ६ ) पद्मसरोवर में कीड़ा करती हुई दो मछलियाँ (१०) पद्मसरोवर ( ११ ) लहरों से आन्दोलित समुद्र ( १२ ) स्वर्ण का ऊंचा सिंहासन (१३) स्वर्ग का विमान (१४) पृथ्वी को भेदकर निकलता हुआ नागेन्द्र का भवन (१५) दीप्तिमान रत्न राशि और (१६) जलती हुई धूमरहित अग्नि देखी और अन्त में एक हाथी को मुख में प्रवेश करते देखा । प्रातः काल बन्दी जनों के मंगल गान को सुनकर महारानी सुख शैया का त्याग कर उठीं और स्नानादि से निवृत्त होकर और मंगल वस्त्राभूषणों से गुसज्जित होकर वे अपने पति सिद्धार्थ महाराज के पास पहुंची । महाराज ने प्रेमपूर्वक उनको अभ्यर्थना की और उनके संकेतानुसार वे सिंहासन पर पति के वाम पार्श्व में आसीन होकर महाराज को रात्रि में देखे हुए स्वप्न सुनाने लगीं तथा उनसे इन स्वप्नों का फल पूछा। महाराज ने निमित्तज्ञान द्वारा स्वप्न के सम्बन्ध में विचार किया और बोले- 'देवि ! तुम्हारे गर्भ से लोक का कल्याण करने वाले लोकपूज्य तार्थ कर का जन्म होगा ।' उन्होंने विस्तारपूर्वक एक एक स्वप्न का फल बताया। स्वप्न फल सुनकर महारानी का मन-मयूर बाल्हाद से नृत्य कर उठा- मैं लोकपूज्य तीर्थंकर की जननी बनूंगी। तीर्थंकर की जननी बनना स्त्री का सर्वोत्कृष्ट सोभाग्य है । त्रिलोकीनाथ तीर्थंकर के कारण उनकी जननी को जगन्माता कहलाने का गौरव प्राप्त होता है ।
महारानी ने जब स्वप्नों के अन्त में विशाल धवल गजराज को मुख में प्रवेश करते हुए देख। तभी अच्यु सेन्द्र अपनी आयु पूर्ण करके गर्भ में अवतरित हुआ । तीर्थंकर भगवान के गर्भावतरण को अपने ज्ञान द्वारा जानकर इन्द्र और देवगण प्रत्यन्त भक्ति भावना से कुण्डपुर के राजप्रासाद में ग्राये । उन्होंने दिव्य मणिमयाभूषणों, गन्धमाल्य तथा वस्त्रादिक से जननी का पूजन किया, और अभिषेक किया और गर्भ कल्याणक का उत्सव मनाकर अपनेअपने स्थान को चले गये । इन्द्र ने माता की सेवा करने के लिए देवियों को नियुक्त कर दिया ।
जन्मकल्याणक - नौ माह पूर्ण होने पर उच्च ग्रहों द्वारा लग्न के दृष्टिगोचर होने पर चैत्र शुक्ला त्रयोदशी सोमवार को उत्तरा फाल्गुनि नक्षत्र पर चन्द्र की स्थिति होने पर अर्चमा नाम के शुभ योग में निशा के प्रन्त भाग में महारानी त्रिशला ने तोर्थंकर महावीर को जन्म दिया। इन ग्रह नक्षत्रों के आधार पर ज्योतिर्वत्ताओं ने तीर्थंकर महावीर की जन्म कुण्डली बनाई है जो इस प्रकार है
जन्म चैत्र सुदी १३ सोमवार, ई० पू० ५६६ नक्षत्र उत्तरा फाल्गुनि, सिद्धार्थी संवत्सर (५३)
महादशा वृहस्पति
१२
22
शुक्र 2
रवि बुध
€
राशि - कन्या दशा-शनि
केतु मंगल
20
७
राहु गुरु ४
१
शनि
५
अन्तर्दशा - बुध
344
て
६ चन्द्र