Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 368
________________ भगवान महावीर ३५३ गिरि पर्वत पर सिंह बना । वहाँ भी वह निरंतर पाप करता हुमा मरकर पुनः प्रथम नरक में गया। वहां दुःख भोगता रहा और अन्त में यह प्रायु पूण करके सिन्धुकूट की पूर्व दिशा में हिमवत् पर्वत के शिखर पर देदीप्यमान प्रयालों घाला सिंह हुमा । एक दिन वह एक हरिण को मारकर ला रहा था। उसी समय चारण ऋविधारी मुनि अजितंजय अमितगण मुनि के साथ आकाश मार्ग से विहार कर रहे थे। उन्होंने उस सिंह को देखा । उन्हें तीर्थकर भगवान के वचनों का स्मरण हो पाया । वे दयावश आकाश से उतर कर उस सिंह के निकट पहुंचे। वे शिलातल पर विराजमान होकर गम्भीर स्वर में उसे संबोधित करते हुए बोले-“बनराज । तू तिर्यञ्च योनि पा कर भी पापों में डूबा हुआ है। क्या तुझे अपने त्रिपृष्ठ जीवन का स्मरण है । तूने नारायण बनकर पाँचों इद्रियों के यथेच्छ भोग भोगे किन्तु तुझे उनसे तुप्ति नहीं हुई। तू धर्म से विमुख रहा, तुझे सम्यग्दर्शन, प्राप्त नहीं हुआ। परिणामस्वरूप तू सप्तम नरक में उत्पन्न हमा। वहाँ तुने घोर से घोर कष्ट सहे, जलती हुई भयानक पग्नि में, खोलते हए तेल में डाला गया, तपते हए लौह स्तम्भों के साथ बांधा गया भयंकर यातनायें दी गयीं। किन्तु तेरे करुण प्राक्रन्दनों, दीनता भरे विलापों और याचना भरे वचनों पर किसी ने ध्यान नहीं दिग, किसी ने तेरी सहायता नहीं की। किसी ने तुझे शरण नहीं दी। प्रायु पूर्ण कर तू भयंकर सिंह बना । उस जीवन में तूने भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी प्रादि की यातनायें सही, तुझे व्याध के वाणों, प्रतिद्वन्द्वी सिंहों द्वारा किये गए भयंकर प्रहारों से अत्यन्त कष्ट हुमा। किन्तु तुझे वहाँ भी धर्म की सुधि नहीं पाई। वहां से मर कर पुनः नरक में गया और नरक के घोर कष्ट सहन किए। वहां से निकल करत पुनः सिंह बना। इस जन्म में भी तू पापों में लिप्त रहा, स्वयं को भूला रहा। अपने अज्ञान और ऋर परिणामों के कारण तू तत्त्व को नहीं पहचान पाया। तेरे इन कर परिणामों के नीचे तेरी प्रास्मा की महान विभूति छिप गई है। तू अपनी विभूति को पहचान, एक दिन तू लोकपूज्य बन जाएगा।" मुनिराज के इन प्रेरक बचनों को सुनकर उस विकराल सिंह को जाति स्मरण शान हो गया । मुनिराज ने जिन जन्मों का वर्णन किया था, वे उसके समक्ष में स्पष्ट हो गए। इन जन्मों में उठाए हुए भयंकर दुःखों का स्मरण करके वह भय से कांपने लगा, उसकी आंखों से पश्चात्ताप की अश्रुधारा बहने लगी। मुनिराज ने देला कि अब इसे अपने कृत्यों पर भारी पश्चात्ताप हो रहा है, इसके हृदय पर जमा हुमा पाप अब मांसू बनकर बह रहा है। निश्चय ही अब इसके हृदय में धर्म के बीच अंकुरित होंगे। यह विचार कर दयालु मुनिराज पुनः कहने लगे-“हे भव्य ! पुरूरवा भील के जीवन में तूने अहिंसा व्रत अंगीकार किया था। किन्तु मरीचि के जन्म में तू दिग्भ्रान्त हो गया और अपने पितामह भगवान ऋषभदेव के उपदेशों के विरुद्ध ही विद्रोह कर दिया तथा धर्म से विपरीत उपदेश देने लगा। परिणामस्वरूप तु असंख्यात वर्षों तक विभिन्न योनियों में जन्म-मरण के दुःख उठाता रहा। निमित्त पाकर विश्वनन्दी की पर्याय में तूने संयम भी धारण किया, किन्तु क्रोध पर विजय न पा सका और निदान बन्ध करके तू त्रिपृष्ठ नारायण हुमा । जो गई सो गई, अब तु अपने भविष्य को सुधार । पापों से हृदय से घृणा हो जाय तो तेरा भविष्य समूज्ज्वल बन जाएगा। भव्य ! तेरा भविष्य अवश्य समूज्ज्वल बनेगा. तु दसवें भव में अन्तिम तीर्थंकर बनेगा। मैंने यह बात श्रीधर तीर्थकर प्रभु से सुनी है। अब तू मिथ्यात्व से विरक्त होकर प्रात्म-हित की ओर उन्मुख हो जा। मुनिराज के इन बचनों को सुनकर सिंह ने उन्हें हृदय से स्वीकार किया । उसने भक्तिपूर्वक मुनि युगल की पाद-वन्दना की, उनको प्रदक्षिणा दी और हृदय से श्रावक के व्रत ग्रहण किए। मुनि-युगल सिंह को आशीर्वाद देकर आकाश-मार्ग से बिहार कर गए। अब सिंह का जीवन एकदम बदल गया। उसने हिंसा का सर्वथा त्याग कर दिया। वह दया-मूति बन गया। अब हिरणमादि उससे भयभीत नहीं होते थे। वह अपने व्रत और शान्त परिणामों के कारण मरकर पहले स्वर्ग में सिंहकेतु नामक महद्धिक देव हुमा । वहाँ पायु पूर्ण होने पर वह विदेह क्षेत्र के मंगलावती देश के बिजयाध पर्वत की उत्तर श्रेणी में कनकप्रभ नगर के अधिपति कनक पख और उसकी महारानी कनकमाला का कनकोज्वल नामक पुत्र हुमा। जब वह विवाह योग्य हुआ तो उसका विवाह कनकवती नामक राजकुमारी के साथ कर दिया गया। एक दिन वह अपनी स्त्री के साथ वन-विहार के लिए गया । वहाँ उसे प्रियमित्र नामक प्रवधिज्ञानी मुनि के दर्शन हुए। उसने मुनिराज की भक्ति पूर्वक वंदना की मोर उनको प्रदक्षिणा देकर वह यथास्थान बैठ गया। भव्य जानकर मुनिराज ने उसे धर्म का स्वरूप समझाया।

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