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भगवान महावीर --संसार के सभी पदार्थ इसी प्रकार क्षणभंगुर है, किन्तु केवल एक ही वस्तु स्थायी है और वह है प्रात्म तत्त्व । उसी पात्म तत्व की प्राप्ति का मैं यत्न करूंगा। वह विरक्त होगया । उसने राज्य-भार अपने भाई को दे दिया मौर युवराज पद अपने पुत्र को दे दिया। राज्य की व्यवस्था करके उसने मुनि दीक्षा ले ली और अपने गुरु श्रीधर के सान्निध्य में अन्तर्बाह्य तप करना प्रारम्भ कर दिया।
एक दिन कुमार विश्वनन्दी अपने मनोहर उद्यान में अपनी स्त्रियों के साथ क्रीड़ा कर रहा था। विशाखनन्द उस उद्यान को देखकर उस पर मोहित होगया। वह सोचने लगा कि किस प्रकार यह उद्यान मेरा हो। वह अपने पिता के पास गया और उसने अपनी इच्छा प्रगट की कि वह उद्यान मुझे दे दीजिये अन्यथा मैं घर-बार छोड़कर चल दूंगा। पिता ने उसे पाश्वासन दिया-तुम चिन्ता न करो, तुम्हें वह उद्यान मिल जायगा। वह विश्वनन्दी को बुलाकर कहा-पुत्र! मैं विरोधी राजाओं का दमन करने जा रहा है। तुम तब तक इस राज्य का भार ग्रहण करो। पितृव्य के वचन सुनकर सुयोग्य पुत्र (भतीजे)विश्वनन्दी ने कहा--पूज्य! आप यहाँ निश्चिन्त रहिये । मेरे रहते आपको कष्ट करने की पावश्यकता नहीं। मैं विरुद्ध राजामों का मान मर्दन करके शीध्र लौटूंगा। मुझे प्रापका आशीबर्बाद चाहिये।
सरल विश्वनन्दी नहीं समझ सका कि उसे स्नेह के प्रावरण में किस प्रकार ठगा जा रहा है। वह सेना लेकर दिग्विजय के लिए चल दिया। उसके जाते ही विशाखभूति ने अपने पुत्र विशाखनन्द को विश्वनन्दी का उद्यान दे दिया। विश्वनन्दी को मार्ग में ही इस घटना का पता चल गया। उसे बड़ा क्षोभ हुआ और वह मार्ग से ही लौट पाया और अन्यायपूर्ण ढंग से उसके उद्यान पर अधिकार करने वाले विशाखनन्द को मारने को उचत हो गया। विशाखनन्द कैथ के एक पेड़ पर चढ़ गया। विश्वनन्दी ने क्रोध में भरकर उस वृक्ष को जड़ से उखाड़ लिया और उसो वृक्ष को लेकर विशाखनन्द को मारने दौड़ा। विशाखनन्द अत्यन्त भयभीत होकर वहां से भागा और एक पाषाण स्तम्भ के पीछे छिप गया। किन्तु विश्वनन्दी ने नुक्कों के प्रहार से उस स्तम्भ को तोड़ दिया। विशाखनन्द अपने प्राण लेकर वहां से फिर भागा । विश्वनन्दी को उसकी करुण दशा पर दया प्राई और उसने अभय दान देते हुए कहा- डरो मत । विशाखनन्द निर्भय होकर उसके पास लौटा। विश्वनन्दी ने स्नेह प्रदर्शित करते हुए अपना उद्यान भाई को दे दिया । संसार के विचित्र स्वभाव को देखकर उसे संसार से ही विराग हो गया और सम्भूत नामक मुनिराज के समीप मुनि-दीक्षा ले ली। अपने अन्याय के परिणामस्वरूप अपने प्रिय भतीजे द्वारा राज-पाट का त्याग कर मुनि-दीक्षा लेने से विशाखभूति को हार्दिक पश्चाताप हुमा और उसने भी राज्य का परित्याग करके संयम धारण कर लिया।
विश्वनन्दी पात्म-शोधन के लिये घोर तप करने लगा। तप के कारण उसका शरीर प्रत्यन्त कृश हो गया। एक बार मुनि विश्वनन्दी विहार करते हुए मथुरा पधारे। वे पाहार के लिये प्रतिग्रह करने पर एक श्रावक के घर प्रविष्ट हए। निबलता के कारण उनके पैर कांप रहे थे। उधर विशाखनन्द राज्य पाकर दुर्व्यसनों में पाकण्ठ निमग्न हो गया। परिणाम यह हुआ कि उसे राज्यच्युत होना पड़ा। वह राजदूत बन कर मथुरा पहुंचा । वह एक धेश्या की छत पर बैठा हुप्रा था। तभी एक सद्यःप्रसूता गाय के धक्के से मुनि विश्वनन्दी गिर गये। विशाखनन्द यह दृश्य देखकर अट्टहास करता हुआ मुनि का उपहास करने लगा-'पाषाण के स्तम्भ को अपने मुष्टिका प्रहार से धूर करने वाले तुम्हारा वह बल कहाँ मया ?' उसके ये बचन सुनकर और उपहास से कुपित होकर मुनि ने मन में दुःसंकल्प किया-तुने मेरा उपहास उड़ाया है। में इस अपमान का बदला अवश्य लूंगा। वे यह निदान करके समाधिपूर्वक मरण को प्राप्त हुए और वे महाशुक्र स्वर्ग में देव हुए। विशाखभूति मुनि भी संन्यास मरण करके उसी स्वर्ग में देव हुए। दोनों देवों में परस्पर बड़ा प्रेम था। अपनी आयु पूर्ण करके विशाखभूति का जीव सुरम्य देश के पोदनपुर नगर में प्रजापति नरेश की जयावती रानी से विजय नामक पुत्र हुमा और विश्वनन्दी का जीव उन्हीं नरेश की दूसरी रानी मुगावती से त्रिपष्ठ नामक पुत्र हमा।ये दोनों ही भावी बलभद्र पौर नारायण थे।
विजयाध-पर्वत की उत्तर श्रेणी में प्रसकापुर का नरेश मयूरग्रीव विधाघरों का अधिपति था। उसकी रानी का नाम नीलांजना था। दुराचारी विशाखनन्द का जीव अनेक.योनियों में जन्म-मरण करता हमा किसी प्रबल पुण्य-योग से उन दोनों के प्रश्वग्रीव नामक पुत्र हमा।