Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 365
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भीलों का सरदार हुँ । शिकार और हत्या छोड़ दूंगा तो सरदार कैसे रहूंगा।' मुनिराज उसकी चिन्ता के अन्तस् को समझ गये । वे कहने लगे- ' भव्य ! दूसरों को मारने की अपेक्षा अपनी इच्छाओंों को मारना कहीं कठिन है । दूसरों को जीतना प्रासान है लेकिन खुद को जीतना कठिन है। तू सरदार है अभी सिर्फ भीलों का। अगर तू अपने आपको, अपनी इच्छात्रों को जीतले तो तू लोक का सरदार बन जायेगा, तू एक दिन लोकपूज्य बन जायेगा । तू मेरे वचनों पर विश्वास कर | हिंसा और मांसभक्षण करना छोड़ दे तेरा हित होगा । पुरूरवा और कालिका दोनों ने वन देवता के बचनों पर विश्वास किया और उनके उपदेश को स्वीकार करके शिकार करना और मांस खाना छोड़ दिया । वे हाती बन गये । अव वन्य पशु पक्षी उससे भवभीत नहीं होते थे, वे निर्भय होकर उसके निकट पा जाते थे । भीलराज के हृदय पर इस परिवर्तन का गहरा प्रभाव पड़ा। वह अधिक निष्ठा से अपनी प्रतिज्ञा का पालन करने लगा। उसके जीवन का दृष्टिकोण ही बदल गया । आयु पूर्ण होने पर वह प्रथम स्वर्ग में महद्धिक देव हुआ। भील के जीवन में उस जीव ने महान् लक्ष्य के लिये अपनी साधना का प्रारम्भ एक साधारण व्रत से किया था। इसे इस रूप में कहना उचित होगा कि महान प्रासाद के लिये नींव में एक पाषाण रक्खा। कई जन्मों के ऐसे पाषाणों पर ही तो एक दिन वह महा प्रासाद खड़ा हो सका । ३५० वह देव सामान्य देवों से भिन्न था, उसका श्राचरण भिन्न था, उसकी रुचि और प्रवृत्ति भिन्न थी । उसके मानस में वन देवता द्वारा पूर्व जन्म में डाले हुए संस्कार बद्धमूल होकर बढ़ रहे थे । विषय भोग उसे प्रिय न थे, प्रिय या धर्माचरण । अपनी आयु पूर्ण होने पर वह प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के चक्रवर्ती पुत्र भरत की रानी अनन्तमती के गर्भ से मरीचि नामक पुत्र हुआ । जब ऋषभदेव ने संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर मुनि दीक्षा ली तो उनकी देखादेखी पौर गुरुभक्ति से प्रेरित होकर ४००० राजाओं ने भी मुनिवेष धारण कर लिया । उनमें मरीचि भी था। उसने भगवान ऋषभदेव की जीवन-चर्या को देखकर तपश्चरण करना प्रारम्भ कर दिया । किन्तु जिसकी जड़ नहीं, वह पेड़ कैसे बनेगा । वह तपश्चरण का भार अधिक समय तक नहीं सम्हाल सका; सर्दी-गर्मी का कष्ट भी सहन नहीं कर सका। वह मार्ग से च्युत हो गया और भटक कर उसने स्वतन्त्र मत का प्रचार प्रारम्भ कर दिया। अपनी तपस्या के बल पर वह ब्रह्म स्वर्ग में देव बना । वह वहाँ भोगों में लीन रहने लगा । देव की मायु पूर्ण होने पर वह अयोध्या में बेदपाठी कपिल की स्त्री काली से जटिल नामक पुत्र हुआ । इस जन्म में भी उसने सत्य धर्म के विरुद्ध प्रचार किया । भ्रात्मा को जाने बिना सन्यासी बनकर भी कोई लाभ नहीं । उसने तपस्या भी की किन्तु उसे आत्मिक लाभ कुछ नहीं मिल सका। इतना लाभ अवश्य मिला कि यह मरकर सोधर्म स्वर्ग में देव बना । वह आयु पूर्ण होने पर स्थूणागार नगर में भरद्वाज ब्राह्मण को पुष्पदत्ता स्त्री से पुष्पपुत्र नाम क पुत्र हुषा । यहाँ भी उसने सन्यासी बन कर उसी प्रकृति तत्व का उपदेश दिया । मात्म तत्त्व वह स्वयं नहीं समझता या फिर वह ग्रात्म तत्व का उपदेश क्या करता । वहाँ आयु पूर्ण होने पर अपनी मन्द कषाय के कारण पुनः सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ। इसके पश्चात् वह सूतिका गवि में मग्निभूत ब्राह्मण और उसकी स्त्री गौतमी का मनिसह पुत्रा। वहां से वह स्वर्ग में देव बना । वहाँ से ग्राकर मन्दिर नामक गाँव में गौतम ब्राह्मण और कौशिकी से मित्र नामक पुत्र हुआ । यहाँ भी वह परिब्राजक बना । वहाँ से मरकर वह माहेन्द्र स्वर्ग में देव बना । वहाँ से च्युत होकर वह मन्दिर नगर में शालंकायन ब्राह्मण की मन्दिरा स्त्री से भरद्वाज पुत्र हुआ । यहाँ वह त्रिदण्डी बन गया । इस जन्म के पश्चात माहेन्द्र स्वर्ग में देव बना । इसके पश्चात् वह अनेक योनियों में भ्रमण करता रहा । फिर एक बार वह राजगृह नगर में बेदश शाण्डिल्य ब्राह्मण को पारशरी स्त्री से स्थावर नामक पुत्र हुआ। वह परि ब्राजक बना और मरकर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुघ्रा । वहीं से व्युत होकर वह राजगृह नगर में विश्वभूति नरेश की जैनी नामक स्त्री से विश्वनन्त्री नामक पुत्र हुषा । राजा विश्वभूति के छोटे भाई का नाम विशाखभूति था, लक्ष्मणा उसकी स्त्री थी। उनके पुत्र का नाम विशाखनन्द था । वह मूखं था । एक दिन विश्वभूति अपने महल की छत पर बैठा हुआ शरद की शोभा निहार रहा, था । उसने देखा कि माकाश में मेघ का एक टुकड़ा थाया। थोड़ी देर में बादल अदृश्य हो गया। इससे राजा को लगा

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