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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
उसी विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में रथनूपुर चक्रवाल नामक नगर था। उस नगर का पविपति ज्वलनजटी नामक विद्याधर नरेश या जो अत्यन्त प्रतापी और शूरवोर था। उसने दक्षिण श्रेणी के समस्त विद्याघर राजाओं को अपना वशवर्ती बना लिया था । उसकी रानी का नाम वायुवेगा था। उनके अर्ककीर्ति नामक पुत्र और स्वयंप्रभा नामक पुत्री थी। स्वयंप्रभा के शरीर में स्त्रियोचित समस्त शुभ लक्षण थे। जब वह विवाह योग्य हो गई तो पिता को उसके विवाह की चिन्ता हुई । उसने निमित्त शास्त्र में निष्णात अपने सम्भिन्न श्रोता नामक पुरोहित से 塑 सम्बन्ध में परामर्श किया। पुरोहित कन्या के ग्रहों और लक्षणों पर विचार करके बोला - सुलक्षणा कन्या प्रथम नारायण की पट्टमहिषी बनेगी और इसके पुण्य प्रताप से भाप समस्त विद्याधरों के एकछत्र सम्राट बनेंगे ।
इधर विजय और त्रिपृष्ठ दोनों भाइयों का प्रभाव दिनों-दिन विस्तृत हो रहा था। अनेक राजा उनके प्रभाव के कारण और अनेक राजा उनके बल विक्रम के कारण उनके प्राधीन होते जा रहे थे। लोगों पर यह प्रगट हो गया कि ये दोनों भाई ही इस युग के प्रथम बलभद्र और नारायण हैं। यह समाचार ज्वलनजटी के कान में भी पहुँचा । उसने इन्द्र नामक मंत्री को प्रजापति नरेश के पास अपनी पुत्री स्वयंप्रभा का सम्बन्ध स्वीकार करने के लिये भेजा । पोदनपुर नरेश उस समय पुष्पकरण्डक नामक वन में विहार करने के लिये गये हुए थे। मंत्री वन में उसके पास पहुँचा। उसने लाये हुए उपायन भेंट किये अपने स्वामी का पत्र दिया तथा अपने उचित स्थान पर बैठ गया । पोदनपुर नरेश ने पत्र खोल कर पढ़ा, जिसमें बड़े विनय के साथ उन्हें स्मरण दिलाया कि में विद्याधर नरेश नमि के वंश में तथा आप भगवान ऋषभदेव के पुत्र बाहुबली के वंश में उत्पन्न हुए हैं। इन दोनों वंशों का वैवाहिक सम्बन्ध अति प्राचीन काल से चला पा रहा है । मेरी पुत्री स्वयंप्रभा रमणियों में रत्न के समान है। मेरी हार्दिक इच्छा है कि मेरी पुत्री का मंगल विवाह कुमार त्रिपृष्ठ के साथ हो । आशा है, आप मेरी इच्छा से सहमत होंगे। महाराज प्रजापति पत्र पढ़ कर अत्यन्त सन्तुष्ट हुए । उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक स्वीकृति देते हुए कहा- जो मेरे बन्धु को इष्ट है, वह मुझे भी इष्ट है । महाराज ने मंत्री का बड़ा सम्मान करके उसे विदा किया। उसने आकर अपने स्वामी को यह हर्ष समाचार सुनाया। कुछ समय पश्चात् ज्वलनजटी अपने पुत्र अककीर्ति के साथ पोदनपुर माया धौर उसने अपनी पुत्री स्वयंप्रभा का विवाह कुमार त्रिपृष्ठ के साथ बड़े समारोह के साथ कर दिया तथा कुमार को सिंहवाहिनी श्रोर गरुड़वाहिनी नामक दो विद्यायें प्रदान कीं ।
जब इस विवाह का समाचार अपने गुप्तचरों द्वारा अश्वग्रीव ने सुना तो वह क्रोध से जलने लगा । उसने अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित सैनिकों की एक विशाल सेना लेकर ग्राक्रमण करने के उद्देश्य से कूंच कर दिया। वह रथावर्त नामक पर्वत पर पहुंचा। अश्वग्रीव के आक्रमण की बात सुनकर त्रिपृष्ठकुमार भी चतुरंगिणी सेना लेकर शीघ्र हो वहाँ भा पहुंचा। दोनों सेनायें विगुल बजते ही परस्पर जूक गईं। अश्वग्रीव और त्रिपृष्ठ में भी भयंकर युद्ध छिड़ गया । भश्यग्रीव तीन खण्ड भूमि की सत्ता का अब तक भोग कर रहा था। अधिकांश नरेश उसके पक्ष में थे, वह स्वयं भी अनेक विद्याओं का स्वामी था । किन्तु त्रिपृष्ठ के सामने उसकी एक न चलो। उसने माया युद्ध में भी त्रिपृष्ठ से पराजय प्राप्त की । तब उसने क्रुद्ध होकर त्रिपृष्ठ पर चक्र चला दिया । किन्तु चक्र उसकी प्रदक्षिणा देकर शोध हो उसकी दाहिनी भुजा पर आकर स्थिर हो गया । त्रिपृष्ठ ने उसे क्रोधवश यत्रु पर चला दिया । चक्र प्रबल वेग से निस्फुलिंग बरसाता हुआ शत्रु की ओर आकाश मार्ग से चला। शत्रु सेना चक्र को माता देखकर भय से विजड़ित होगई । चक्र ने आते ही प्रश्दी का सर धड़ से अलग कर दिया। मश्वग्रीव को भागतो हुई सेना को त्रिपृष्ठ ने अभयदान दिया। इसके पश्चात् वह विशाल सेना लेकर दिग्विजय के लिये निकला मौर जल्दी ही भरत क्षेत्र के तीनों खण्डों को जीत कर वापिस लौटा। सब नरेशों ने त्रिपृष्ठ को नारायण और विजय को बलभद्र स्वीकार किया । त्रिपृष्ठ ने विजयार्ध पर्वत पर जा कर अपने श्वसुर ज्वलनजटी को दोनों श्रेणियों के विद्याषरों का सम्राट घोषित किया तथा स्वयंप्रभा को अपनी पट्टमहिषी के पद पर अभिषिक्त किया ।
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दोनों भाइयों ने चिरकाल तक राज्य लक्ष्मी का भोग किया। उनमें परस्पर बड़ा प्रेम था। त्रिपृष्ठ बहुत प्रारम्भ और परिग्रह का धारक होने के कारण मरकर सातवें नरक में नारकी बना ।
त्रिपुष्ठ का जीव नरक के भयंकर दुःखों का भोग करता हुआ मा पूर्ण करके गया नदी के तटवर्ती सिंह