Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 369
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास मुनिराज के उपदेश को सुनकर उसके हृदय में भोगों के प्रति विराग उत्पन्न हो गया। उसने सभी प्रकार के प्रारम्भ और परिग्रह का त्याग करके तत्काल बहीं संयम धारण कर लिया। सिंह की पर्याय में उसे धर्म की जो रुचि जागृत हुई थी, वह इस जन्म में और भी अधिक बढ़ गयी । वह धर्म-साधना में निरन्तर सावधान रहता था। अन्त में वह सन्यास मरण करके सातवें स्वर्ग में देव हुआ । यहाँ भी उसकी प्रवृत्ति धर्म की ही ओर रहती थी। वहीं बायु पूर्ण होने पर साकेत नगर के नरेश वज्रसेन की सीलवती रानी के हरिषेण नामक पुत्र हुआ। प्रन तो उसकी दृष्टि ही बदल गई थी । अतः वह भोगों में ग्रासक्त नहीं हुआ, अपितु वह थपनी व्रत साधना को बराबर बढ़ाता रहा। उसे स्वयं ही भोगों से अरुचि हो गई और श्रुतसागर मुनिराज के समीप दिगम्बरी दोक्षा धारण कर ली। व्रती को निरन्तर शुद्धिं बढ़ाते हुए वह आयु के अन्त में महाशुक स्वर्ग में महद्धिक देव हुआ। वहां पर तीर्थ बन्दना, तीर्थंकरों का उपदेश श्रवण मादि धार्मिक कृत्यों में ही समय व्यतीत करता था । प्रायु के अन्त में इसी धर्म-भाव के साथ मरण करके घातकी खण्ड द्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी में राजा सुमित्र और उसकी रानी मनोरमा से प्रियमित्र नामक पुत्र हुआ। जब उसका राज्याभिषेक हो गया, तब कुछ समय पश्चात् उसके शस्त्रागार में वक्ररत्त उत्पन्न हुआ। अपनी विशाल वाहिनी लेकर वह दिग्विजय के लिए निकला। उस चक्ररत्न को सहायता से उसने थोड़े ही समय में समस्त पृथ्वी के राजाओंों को जीत लिया और वह सम्पूर्ण पृथ्वी का एकछत्र सम्राट् चक्रवतीं बन गया । चक्रबर्ती पद पर रहकर उसने यथेच्छ भोग भोगे किन्तु उसकी तृप्ति नहीं हो पाई। एक दिन क्षेमंकर भगवान का उपदेश सुनकर इन क्षणभंगुर भोगों से विरक्त हो गया । उसने अपने पुत्र सर्वमित्र का राज्याभिषेक करके एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ले ली। मुनिराज प्रियमित्र ने निष्ठापूर्वक महाव्रतों का पालन किया और कर्म क्षय करने के लिए घोर तप करने लगे । प्रायु समाप्त होने पर सहस्रार स्वर्ग में सूर्यप्रभ नामक देव हुआ । ३५४ वह देव श्रायु के अन्त में स्वर्ग से च्युत होकर छत्रपुर नरेश नन्दिवर्धन तथा उनकी रानी वीरवती से नन्द नामक पुत्र हुआ। जन्म से ही उसकी रुचि धर्म की ओर थी। वह घर में रहकर भी भोगों के प्रति अनासक्त था । वह गृहस्थ दशा में भी अनासक्त कर्मयोग का साधक था । वह राग में भी विराग की उपासना करता रहता था । एक दिन उसने प्रोष्ठिल नामक निर्ग्रन्थ गुरु का उपदेश सुनकर भोगों का त्याग कर दिया और मुनि दीक्षा ले ली । उन्होंने अल्प समय में ही ग्यारह अगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। इसके साथ हो उन्होंने दर्शन विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं का निरन्तर चिन्तन करते रहने और उन्हें जीवन का श्रृंगार बनाने के कारण महापुण्यशाली तीर्थंकर नामक नाम कर्म का बन्ध किया । उनके मन में म्रात्म कल्याण की भावना के साथ संसार के दुखी प्राणियों को देखकर यह भावना बनी रहती थी कि मैं इन प्राणियों का दुःख किस प्रकार दूर करूँ | उनकी लोक-कल्याण की भावना इस सीमा तक बढ़ गई थी कि वे संसार के सम्पूर्ण प्राणियों में प्रात्मोपम्य के दर्शन करने लगे । उनकी साधना सर्वसत्त्व समभाव तक बढ़ गई थी। इस साधना को विश्व के समस्त प्राणियों के प्रति मंत्री भाव कहा जा सकता है । इस मंत्री भाव के कारण वे परम ब्रह्म के अनन्य साधक बन गये। इस साधना के साथ वे चारों प्रकार की आराधनाओं के भी प्राराधक थे। इसी धारावना को लेकर उन्होंने सन्यास मरण किया और वे अच्युत स्वर्ग में देवेन्द्र बने । वज्जिसंघ का लिच्छवि गणराज्य वंशाली में स्थित था। वह सर्वाधिक शक्तिशाली गणराज्य था । उसके गणप्रमुख महाराज चेटक थे। उनकी बड़ी पुत्री त्रिशला, जिन्हें प्रियकारिणी भी कहा जाता था, वैशाली के उप गर्भ कल्याणक नगर (अथवा जिला) कुण्डपुर के गणप्रमुख महाराज सिद्धार्थ को ब्याही गई थीं। उनके राजप्रासाद का नाम नन्द्यावर्त था । वह सात खण्ड का था। जब उपर्युक्त अच्युतेन्द्र की श्रायु में छह माह शेष रहे, तब लोकोत्तर विभूति तीर्थंकर महावीर के पुण्यप्रभाव से सौधर्मेन्द्र की प्राशा से कुवेर ने नन्द्यावर्त प्रासाद और कुण्डपुर नगर में रत्न वर्धा करना प्रारम्भ किया जो महावीर के जन्म पर्यन्त अर्थात् पन्द्रह माह तक निरन्तर होती रही। प्राषाढ़ शुक्ला षष्ठी को जबकि चन्द्रमा उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में था, महारानी शिला सात खण्ड वाले नन्द्यावर्त प्रासाद में हंस सूनिका प्रादि से सुशोभित रत्न पर्यकू पर सो रही थीं। जब उस रात्रि के रौद्र, राक्षस और गंधर्व नामक तीन प्रहर व्यतीत हो गये और मनोहर नामक छौ प्रहर का पन्त होने

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