Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 363
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास है कि सम्मेद शिखर पर सौधर्मेन्द्र ने बीस तीर्थंकरों की प्रतिमा स्थापित की। वे प्रतिमायें अदभत थीं। उनका प्रभा मण्डल प्रतिमाओं के आकार का था। श्रद्धालु भव्य जन ही इन प्रतिमानों के दर्शन कर सकते थे। जिनके हृदय में श्रद्धा नहीं होती थी, वे इस प्रभा-पज को देख नहीं पाते थे। __ अनुश्रुति यह भी है कि महाराज श्रेणिक विम्बसार ने सम्मेद शिखर पर वीस मन्दिर बनवाये थे। इसके पश्चात् सत्रहवीं शताब्दी में महाराज मानसिंह के मंत्री तथा प्रसिद्ध ब्यापारी गोधा गोत्रीय रूपचन्द्र खण्डेलवाल के पुत्र नान ने बीस तीर्थंकरों के मन्दिर बनाये । नान के बनाये हुए तेरी मन्दिर या टोंके अब तक यहां विद्यमान हैं। मंत्रीवर्य नानू ने इन मन्दिरों (टोंकों) में चरण विराजमान किये थे। सम्मेद शिखर जाने के लिये दिल्ली या कलकत्ता की भोर से प्राने वाले यात्रियों के लिये पारसनाथ स्टेशन पर उतरना सुविधाजनक रहता है । गिरीडीह भी उतर सकते हैं। ईसरी में तेरहपंथी और बीसपंथी धर्मशालायें बनी हुई हैं । यहाँ चार दिगम्बर जैन मन्दिर हैं। यहाँ से मधुवन १४ मील है। क्षेत्र को बस और टैक्सियों चलती हैं। मधुवन में दिगम्बर जैन तेरहपंथी कोठी और बीसपंथी कोठी की विशाल धर्मशालायें, मन्दिर बने हुए हैं। ये कोठियां सम्मेद शिखर की तलहटी में हैं। सम्मेद शिखर की यात्रा के लिये दो मार्ग हैं-नीमियाघाट होकर अथवा मधुवन होकर । नीमियाघाट पर्वत के दक्षिण की ओर है। इधर से यात्रा करने पर सबसे पहले पार्श्वनाथ टोक पड़ती है। किन्तु मधुवन की ओर से यात्रा करना ही सुविधाजनक है । कुल यात्रा १८ मील की पड़ती है जिसमें ६ मील चढ़ाई, ६ मील टोंकों की वन्दना पौर ६ मील उतराई। यात्रा के लिये रात्रि में प्राय: दो बजे उठकर शौच, स्नानादि से निवृत्त होकर तीन बजे चल देते हैं। साथ में लाठी और लालटेन लेने से सुबिधा रहती है। असमर्थ स्त्री-पुरुष डोलो लेते हैं तथा बच्चों के लिये भील ले लेते हैं। मधुवन में डोली वाले, भील, लाठी, लालटेन आदि मिल जाते हैं। शौच आदि से यही निवृत्त हो लेना चाहिये । यदि मार्ग में बाधा हो तो मधुवन से २॥ मौल चलकर गन्धर्व नाला पड़ता है, यहाँ निवृत्त हो लेना चाहिये । इसके पश्चात् मुज, मुत्रादि पर्वत पर जाकर नहीं करना चाहिये। इसका कारण पर्वत की पवित्रता है। गन्धर्व नाले से कुछ आगे चलने पर दो रास्ते मिलते हैं। एक रास्ता सीतानाले की पोर जाता है और दूसरा पार्श्वनाथ टोंक को । बाई ओर के रास्ते पर जाना चाहिये। आगे सीतानाला मिलता है। यहां अपनी सामग्री बोलेनी चाहिये एवं अभिषेक के लिये जल ले लेना चाहिये । यहाँ से मागे एक मील तक पक्की सीढ़ियां बनी हई हैं। पहाड़ पर ऊपर चढ़ने पर सर्वप्रथम गौतम स्वामी की टोंक मिलती है। यहाँ यात्रियों के विश्राम के लिये एक कमरा भी बना हमा है। टोंक से बांये हाथ की ओर मुड़कर पूर्व दिशा की १५ टोंकों की वन्दना करनी चाहिये। भगवान अभिनन्दननाथ की टोंक से उतर कर जल मन्दिर में जाते हैं 1 यहाँ एक विशाल जिन मन्दिर बना हमा है। उसके चारों मोर जल भरा हुआ है। यहां से गौतम स्वामी को टोंक पर पहुंचते है, जहां से यात्रा प्रारम्भ की थी। इस स्थान से चारों मोर को रास्ता जाता है। पहला जल मन्दिर को, दूसरा मधुधन को, तीसरा न्युनाथ टोंक को और चौथा पार्श्वनाथ टोंक को। पतः यहाँ से पश्चिम दिशा की मोर जाकर शेष नौ टोंकों की वन्दना करनी चाहिये । पर्वत पर श्वेताम्बर समाज ने ऋषभानन, चन्द्रानन प्रादि टोंके और चरण नवीन बना दिये हैं। पन्तिम टोंक पायनाथ भगवान की है। यह टोंक सबसे ऊंची है और मन्दिर के समान है। यह बैठकर पूषन करनी चाहिये । यहाँ खड़े होकर देखें तो चारों भोर का प्राकृतिक दृश्य प्रत्यन्त मनोरम प्रतीत होता है। मन में प्रफुल्लता मर जाती है। यात्री यहाँ पाकर अपनी सारी थकावट भूल जाता है। यहां से वापिस मधुवन को लौट जाते हैं। कुछ यात्री पर्वत की। तीन, सात या इससे भी अधिक वन्दना करते हैं।

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