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भगवान पार्श्वनाथ का लोकव्यापी प्रभाव
भेद करने की तनिक भी बुद्धि नहीं थी और जो केवल अपने साम्प्रदायिक आग्रह को ही सत्य का निर्णायक मान बैठे थे । प्राचार्य उनके कल्याण की कामना मन में संजोये अपने आराध्य प्रभु के स्तवन में निश्त हो गये। एक योगी की उपासना सर्वसाधारण से सर्वथा भिन्न रहती है। उसकी इच्छा-शक्ति के समक्ष निर्जीव पाषाण भी द्रवित हो जाते हैं। महायोगी समन्तभद्र जब चन्द्रम तीर्थकर की स्तुति कर रहे थे, उनकी इच्छा-शक्ति अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई। उनके मानस नेत्रों के श्रागे चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र विराजमान थे । उनको रोम-रोम में चन्द्रप्रभ भगवान एकाकार होगये । उनकी महान इच्छा-शक्ति के प्रागे शिवलिंग के पाषाण का हृदय फूट गया और उसके अन्तर से चन्द्रप्रभ की मूर्ति प्रस्फुटित हुई, मानो शिवलिंग के अन्तर में चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र की भक्ति समा नहीं पाई और उसने जिनेन्द्रप्रभु को अपने शीर्ष पर विराजमान करके अपनो प्रभु-भक्ति को एक आकार प्रदान किया। जब पाषाण का कठोर हृदय प्रभावित होसकता है तो क्या मानवों के हृदय अप्रभावित रह सकते थे। राजा श्रीर प्रजा सभी चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र और उनके अनन्य उपासक योगी समन्तभद्र के चरणों में नत होगये और सबने उनसे सत्य की दीक्षा ली । सम्पूर्ण राजा प्रजा ने एक साथ धर्म-दीक्षा ली हो, ऐसी घटनायें विरल हो हैं । यह उन विरल घटनाओं में प्रमुख घटना है और आज भी इस घटना की स्मृति को फटे महादेव अपने भीतर संजोये हुए हैं, जिनका नाम कुछ समय पूर्व तक
समन्तभद्र इवर था ।
इस नगर में सुपार्श्वनाथ तीर्थकर का जन्म हुआ था और यहीं पार्श्वनाथ तीर्थकर ने जन्म लिया था । पार्श्वनाथ के उपदेशों से प्रभावित होकर उनके माता-पिता ने भी दीक्षा ले ली।
इस प्रकार यहाँ न जाने कितनी महत्वपूर्ण घटनायें घटित हुईं।
काशी एक समृद्ध नगर था। वह व्यापारिक केन्द्र भी था । जल और स्थल दोनों मार्गों द्वारा भारत के प्रसिद्ध नगरों के साथ काशी जनपद का सम्बन्ध था। काशी से राजगृह, धावस्ती, तक्षशिला, बेरंजा, और मथुरा तक स्थल मार्ग था। काशी से ताम्रलिप्ति होकर पूर्वी समुद्र के लिये जल मार्ग था। इसीलिये प्राचीन भारत की समृद्ध नगरियों में काशी की गणना की जाती थी ।
वस्तुतः काशी जनपद और उसकी प्रमुख नगरी वाराणसी सभी दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण नगरी यी
सम्मेद शिखर संसार के सम्पूर्ण तीर्थक्षेत्रों में सबसे महत्त्वपूर्ण तीर्थ है। इसीलिये इसे तीर्थराज कहा जाता है । इसका महत्त्व शास्त्रों में इतना बताया है- "एक बार बन्दै जो कोई, ताहि नरक पशु गति नहीं होई ।। " संभवतः हिन्दी कवि सम्मेद शिखर का माहात्म्य पूर्ण रूप से प्रदर्शित नहीं कर सके हैं। सम्मेद शिखर की बन्दना करने का फल केबलमात्र नरक और पशुगति से ही छुटकारा मिलना नहीं है, यह तो सभी कल्याणका तीथों की बन्दना का फल होता है। सम्मेद शिखर की वन्दना का वास्तविक फल तो यह है कि उसकी एकबार वन्दना और यात्रा करने से परम्परा से संसार के जन्म-मरण से भी छुटकारा मिल जाता है । यहाँ प्रभव्य और दूरान्दूर भव्य के भाव वन्दना करने के हो ही नहीं सकते । यदि ऐसा कोई व्यक्ति लोक दिखावे के लिये सम्मेद शिखर की यात्रा के लिये जाता भी है तो उसकी वन्दना नहीं हो सकती, कोई न कोई वाघा या अन्तराय श्रा ही जाता है। इस प्रकार के उदाहरण हमें मिलते हैं ।
पार्श्वनाथ की निर्वाण भूमि
सम्मेद शिखर
इसे तीर्थराज कहने का विशेष कारण है। शास्त्रों में कथन है कि सम्मेद शिखर और अयोध्या अनादि घन तीर्थ हैं। अयोध्या में सभी तीर्थकरों का जन्म होता है और सम्मेद शिखर में सभी तीर्थकरों का निर्वाण होता है। किन्तु इस हुण्डावसर्पिणी काल में काल दोष से इस शाश्वत नियम का व्यतिक्रम होगया। अयोध्या में केवल पांच तीर्थकरों का ही जन्म हुआ और सम्मेद शिखर में बीस तीर्थकरों का निर्वाण हुआ। ऋषभदेव, वासुपूज्य, नेमिनाथ और महावीर तीर्थंकर का निर्वाण क्रमश: कैलाश, चम्पापुरी, गिरनार और पावापुरी में हुआ, शेष तोर्थकरों का निर्वाण सम्मेद शिखर पर हुआ । इनके अतिरिक्त असंख्य मुनियों ने भी यहाँ से मुक्ति प्राप्त की ।
बीस तीर्थकरों ने सम्मेद शिखर से निर्वाण प्राप्त किया, इस प्रकार के उल्लेख सभी जैन शास्त्रों में मिलते हैं । शास्त्रीय मान्यता यह भी है कि जहां से तीर्थकरों मे मुक्ति प्राप्त की, उस स्थान पर सौधर्मेन्द्र ने स्वस्तिक बना दिया जिससे उस स्थान को पहचान हो सके । यतिवर मदनकीर्ति ने 'शासन चतुस्त्रिशिका' नामक ग्रन्थ में यहां तक लिखा