Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 361
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास ३४६ वह तक्षक के हाथों मारा गया । इसका प्रतिशोध परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने बड़ी करतापूर्वक लिया। उसने नाग जाति का विध्वंस करना प्रारम्भ कर दिया । नाग जाति के बड़े-बड़े केन्द्र नष्ट हो गये, बड़े-बड़े वीर मारे गये। सारा जनमेजनक, शो पर योगों में समझौता हुया। किन्तु जनमेजय की मृत्यु के पश्चात् नाग जाति एक वार पुनः प्रबल हो उठी और उसने अनेक सत्ता केन्द्र बना लिये। इससे यह तो सिद्ध होता है कि नाग मनुष्य थे, सर्प नहीं, जैसा कि हिन्दू पुराणों में वर्णन किया गया है। किन्तु इस प्रकार के उल्लेख हमें कहीं नहीं मिलते कि वीर नागों की पूजा भी की जाती थी। बस्तुतः नाग-पूजा का प्रचलन भगवान पाश्वनाथ के काल से प्रारम्भ हुप्रा है। यहां दो बातें विशेष उल्ले. खनीय हैं। एक तो यह कि पार्श्वनाथ से पूर्व नाग-पूजा प्रचलित थी, इस प्रकार के उल्लेख किसी पुराण ग्रन्थ में नहीं मिलते। दूसरी बात जो ध्यान देने की है वह यह है कि पार्श्वनाथ के जीवन-काल में काशी में नाग-पूजा का अत्यधिक प्रचलन था । यदि हम पाश्र्वनाथ के जीवन पर गहराई से विचार करें तो हमें इसका उत्तर सहज ही मिल जाता है। पाश्वनाथ काशी के ही राजकुमार थे। उनके प्रति जनता के मन में अपार प्रेम और श्रद्धा थी। जनता उन्हें अपना भाराध्य मानती थी। उनकी रक्षा धरणेन्द्र ने नाग का रूप धारण करके की थी, भोली जनता ऐसा समझती थी। इसलिये कृतज्ञता प्रगट करने के लिये जनता उस नाग की पूजा करने लगी। काशी में नाग-पूजा के प्रचलन का यही रहस्य था। वहीं से प्रारम्भ होकर नाग-पूजा देश के अन्य भागों में फैल गई। नाग-पूजा जनता की प्रत्यधिक श्रद्धा का परिणाम थी। सर्व साधारण की श्रद्धा के अांखें नहीं होतीं। तब न केवल स्वतन्त्र नाग-पूजा हो चल पड़ी, चरन पार्श्वनाथ की मूर्तियों के साथ भी नागेन्द्र जड़ गया । इसका कारण घरमेन्द्र द्वारा पाश्र्वनाथ की रक्षा करने की घटना की स्मृति को सुरक्षित रखना था। यहाँ तक तो कुछ समझ में पाने लायक बात मानी भी जासकती है किन्तु पार्श्वनाथ के साथ नाम-साम्य के कारण सुपार्श्वनाथ की मूर्तियों पर भी सर्प-फण लगाये जाने लगे। जबकि सुपार्श्वनाथ का लांछन स्वस्तिक माना गया है। इसी प्रकार पार्श्वनाथ के समान धरणेन्द्र और पद्मावती की प्रसंस्थ मूर्तियाँ बनने लगीं। इसे पार्श्वनाथ के प्रति जनता की अतिशय श्रद्धा के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है। काशी में यक्ष-पूजा का बहुत प्रचलन था, इसका कारण पार्श्वनाथ के प्रति जनता के प्रसीम प्रेम के प्रतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। परणेन्द्र पीर पद्मावती पार्श्वनाथ के यक्ष-यक्षिणी माने गये है। वे पाश्र्वनाथ के अनन्य सेवक माने जाते हैं। एक ओर तो जनता ने उनके नाग रूप की पूजा प्रारम्भ की, दूसरी और उनके यक्ष ने पूजा की जाने लगी। काशी में उस समय प्रचलित नाग-यूजा और यक्ष-पूजा का यही रहस्य है पौर वह पाश्वनाथ को जीवन घटना के साथ ऐसा सम्बन्धित है कि उन्हें उससे पृथक करके देखना सम्भव नहीं है। काशी ऋषभदेव भगवान के काल से ही एक प्रसिद्ध जनपद रहा है। वहाँ अनेक सांस्कृतिक, पौराणिक पौर ऐतिहासिक घटनायें हुई हैं। कर्मयुग के प्रारम्भ में काशी नरेश मकपन की पुत्री सुलोचना के स्वयंवर के कारण स्वयंवर प्रथा का जन्म हुआ और इस प्रकार काशी ने कन्यानों को अपना मनोभिलषित' वर चुनने की स्वतन्त्रता प्रदान करके नारी-स्वतन्त्रता के नये आयाम प्रस्तुत किये। भारत में स्वयंवर प्रथा का प्रारम्भ इसी घटना से हमा है और वह सुदीर्घ काल तक भारत में प्रचलित रही। इतिहास में संभवतः संयोगिता-स्वयम्बर के पश्चात यह प्रथा समाप्त हो गई। कारण तत्कालीन परिस्थितियां -विशेषत: मुस्लिम शासकों के पनाचार और बलात्कार रहे । किन्तु एक लम्बे समय तक यह प्रथा भारत में लोकप्रिय रही। नौवें चक्रवर्ती पद्म ने काशी को सम्पूर्ण भारत की राजधानी बनाकर इसे राजनैतिक महत्त्व प्रदान किया। जैन धर्म के प्रभावक प्राचार्य समन्तभद्र को यहाँ कड़ी साम्प्रदायिक परीक्षा में से गुजरना पड़ा था। उनके समक्ष धर्मान्ध नरेश शिवकोटि ने दो विकल्प रक्खे-धर्म-परिवर्तन अथवा मृत्यु । आचार्य के सिर पर नंगी तलवारें तनी हुई यो । किन्तु उनके समक्ष प्रश्न मृत्यु का नहीं; पात्मश्रद्धा का था। अपने जीवन से भी अधिक उन्हें प्रिय थे सिद्धान्त और वह धर्म, जिसके प्रति वे सर्वान्तःकरण से समर्पित थे। उनके मन में भय की तनिक सी भी रेखा नहीं पी। उनका हृदय तो उन मोहान्ध व्यक्तियों के प्रति अपार करणा से भरा हुआ था, जिन्हें सत्य और मसत्य के बोच

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