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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
वहाँ का एक व्यापारी बन्धुदत्त मनेक दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं से गुजरता हुआ एक बार भीलों द्वारा उसके साथियों सहित पकड़ लिया गया और बलिदान के लिये देवता के आगे ले जाया गया। उसकी पत्नी प्रियदर्शना को भील सरदार ने अपने ग्रावास में धर्म-पुत्री के रूप में रक्खा था। प्रियदर्शना को अपने पति के दुर्भाग्य का कुछ भी ज्ञान नहीं था और जब भी उसने भील सरदार से अपने पति के सम्बन्ध में कुछ कहने का प्रयत्न किया, भील सरदार व्यस्तता के कारण उसकी बात नहीं सुन सका । एक दिन सरदार अपनी धर्म-पुत्री को पपने जातीय उत्सव को दिखाने ले गया। उस उत्सव में बन्धुदत्त का बलिदान होना था । बलिदान का क्रूर दृश्य वह न देख सके, इसलिये प्रियदर्शना की भांखों पर पट्टी बांध दी गई। जब उसने देवता के यागे खड़े अपने पति को प्रार्थना करते हुए सुना तो उसने पट्टी उतार फेंको श्रोर दौड़कर अपने पति के साथ खड़ी हो गई तथा वह भी बलिदान के लिये तैयार हो गई । ate सरदार को आखिर बन्धुदत्त और उसके साथियों को छोड़ना पड़ा। किन्तु भील सरदार के समक्ष समस्या थी कि देवता को नर-मांस के बिना प्रसन्न कैसे किया जाय, जिसका उत्तर वन्धुदत्त ने अहिंसात्मक ढंग से दिया और देवता को फल-फूलों से सन्तुष्ट किया। भील सरदार अहिंसा की इस अपरिचित विधि से बड़ा प्रभावित हुआ। वह बन्धुदत्त के श्राग्रह से उसके साथ नागपुर गया और वहाँ पधारे हुए भगवान पार्श्वनाथ के दर्शन किये। भगवान का उपदेश सुनकर वह भील सरदार सदा के लिये जैन धर्म और अहिंसा का कट्टर उपासक बन गया। इस प्रकार तं जाने कितने व्यक्ति, जातियाँ और प्रदेश पार्श्वनाथ का उपदेश सुनकर उनके धर्म में दीक्षित हो गये ।
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भगवान पार्श्वनाथ का सर्वसाधारण पर कितना प्रभाव था, यह श्राज भी बंगाल-विहार- उड़ीसा में फैले हुए लाखों सराकों, बंगाल के मेदिनीपुर जिले के सद्गोपों, उड़ीसा के रंगिया जाति के लोगों, पलक बाबा आदि के जीवन-व्यवहार को देखने से पता चलता है । यद्यपि भगवान पार्श्वनाथ को लगभग पौने तीन हजार वर्ष व्यतीत हो चुके है और ये जातियाँ किन्हीं वाध्यताओं के कारण जैन धर्म का परित्याग कर चुकी है किन्तु प्राज भी ये जातियाँ पार्श्वनाथ को अपना श्राद्य कुलदेवता मानती हैं, पार्श्वनाथ के उपदेश परम्परागत रूप से इन जातियों के जीवन मे ग्रब तक चले आ रहे हैं। पार्श्वनाथ के सिद्धान्तों के संस्कार इनके जीवन में गहरी जड़ जमा चुके हैं। इसीलिये ये लोग हिंसा में पूर्ण विश्वास करते हैं, मांस भक्षण नहीं करते, रात्रि भोजन नहीं करते, जल छानकर पीते हैं, जैन तीर्थों की यात्रा करते हैं, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ और महावीर की उपासना करते हैं, अष्टमी चतुर्दशी को उपवास करते हैं। जिन प्रान्तों में ये लोग रहते हैं, वहां मांसाहार सामान्य बात है; जिस धर्म के ये धनुयायी हैं, उसमें बलि साधारण बात है, किन्तु ये लोग इतने लम्बे समय से अपने संस्कारों की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करते चले आ रहे हैं। यह उनको दृढ भास्था ओर विश्वास का प्रमाण है। यह आस्था और विश्वास उस महापुरुष के प्रति है, जिसने पीने तोन हजार वर्ष पूर्व इन्हें एक प्रकाश दिया था। उस प्रकाश को ये लोग आज तक अपने हृदय में संजो कर रखे हुए हैं। इन जातियों के अतिरिक्त सम्मेद शिखर के निकट रहने वाली भील जांति पार्श्वनाथ की अनन्य भक्त है। इस जाति के लोग मकर संकान्ति के दिन सम्मेद शिखर की सभी टोंकों की बन्दना करते हैं और पार्श्वनाथ टोंक पर एकत्रित होकर उत्सव मनाते हैं, गीत नृत्य करते हैं ।
इन जातियों ने अपने आराध्य पार्श्वनाथ के प्रति अपने हृदय की श्रद्धा और आभार प्रगट करने के लिये सम्मेद शिखर का नाम पारसनाथ हिल रख दिया है और वह नाम अब बहुत प्रचलित हो गया
सर्व साधारण के समान राजन्यवर्ग पर भी भगवान पार्श्वनाथ का व्यापक प्रभाव था। ऐसे साहित्यिक साक्ष्य और पुरातात्विक प्रमाण उपलब्ध होते हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि गजपुर नरेश स्वयंभू ने भगवान के समीप प्रव्रज्या ग्रहण की महिच्छत्र के गंगवंशी नरेश प्रियबन्धु ने भगवान के दर्शन किये भौर उनका अनुयायी बना । उस समय जितने ब्रात्य क्षत्रिय राजा थे वे पार्श्वनाथ के उपासक थे। जब भगवान शौरीपुर पधारे तो वहाँ का राजा प्रभंजन उनका भक्त बन गया। वाराणसी नरेश प्रश्वसेन श्रौर महारानी वांभादेवी ने भगवान के निकट दीक्षा ग्रहण कर ली। बज्जि संघ के लिच्छवी यादि पाठ कुल उनके भक्त थे। उस संघ के गणपति वेटक, क्षत्रियकुण्ड के गणपति भगवान महावीर के पिता सिद्धार्थ भी पार्श्वनाथ सम्प्रदाय के उपासक थे। पांचाल नरेश दुमुख, विदर्भ नरेश भीम मोर गान्धार मरेश नागजित् पार्श्वनाथ के समकालीन थे और पार्श्वनाथ के भक्त थे। पार्श्वनाथके तीर्थ में उत्पन्न हुए कलिंग नरेश
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