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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास मूर्तियां अष्टभजी, बारहभूजी और षोडशभजी भी मिलती हैं। प्रायः पदमावती की मूर्तियों के सिर के ऊपर फणावलियुक्त पाश्वनाथ मूर्ति विराजमान होती है और जो पद्मावती मूर्ति पार्श्वनाथयुक्त नहीं होती, उसके ऊपर सर्प फण बना होता है। इससे पद्मावती देवी की मूर्ति की पहचान हो जाती है। किन्तु कुछ ऐसी भी मूर्तियाँ मिलती हैं, जिनकी एक गोद में बालक और दूसरी ओर उगली पकड़े हुए एक बालक खड़ा है। बालकों को देखकर यह भ्रम होना स्वाभाविक है कि ऐसी मूति मम्बिका देवी की होनी चाहिये । किन्तु सिर पर सर्प फण होने के कारण ऐसी भूति पदमावती देवी की मानी जाती है। ऐसी अद्भुत मूर्तियां देवगढ़ में मिलती हैं। इसका एकमात्र कारण कलाकारों की स्वातन्त्र्यप्रियता ही कही जा सकती है। वे बंधे हुए ढरे से बंधे नहीं रह सके और उन्होंने अपनी कल्पना की उड़ान से पदमावती देवी को नये नये रूप दिये, नये आयाम दिये और नया प्राकार प्रदान किया। जो व्यक्ति शास्त्रों में उल्लिखित रूप के अनुकूल पद्मावती देवी को अनेक मूर्तियों को देखकर सन्देह और भ्रम में पड़ जाते हैं, उन्हें इस तथ्य को हृदयंगम करना चाहिये कि कलाकार कोई वन्धन स्वीकार नहीं करता, वह स्वतन्त्रचेता होता है, स्वातन्त्र्य प्रिय होता है। इसीलिये कलाकारों की नित नवीन कल्पनामों में से पदमावती देवी के नानाविध रूप उभर कर पाये।
भगवान पार्श्वनाथ का लोकव्यापी प्रभाव
भगवान पार्श्वनाथ का व्यक्तित्व अत्यन्त प्रभावक था । उनको साधना महान थी। उनकी वाणी में करुणा, शुचिता और शान्ति-दान्ति का संगम था। उन्होंने अपने उपदेशों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह इस चातुर्याम संबर पर अधिक बल दिया था। उनके सिद्धान्त सर्वथा व्यावहारिक थे। इसी कारण उनके व्यक्तित्व और उपदेशों का प्रभाव जन-जन के मानस पर अत्यधिक पड़ा। इतना ही नहीं, तत्कालीन वैदिक ऋषिगण, राजन्य वर्ग पौर पश्चात्कालीन धर्मनेताओं पर भी गहरा प्रभाव पड़ा। इतिहासकारों ने उनके धन के सम्बन्ध में लिखा है
"श्री पाश्र्वनाथ भगवान का धर्म सर्वथा व्यवहार्य पाहिसा, प्रसत्य, स्तेय पोर परिसर का त्याग करना यहपातुर्याम संघरवाद उनका धर्म था। इसका उन्होंने भारत भर में प्रचार किया। इतने प्राचीन काल में हिंसा को इतना सुव्यवस्थित रुप देने का यह सर्वप्रथम उदाहरण है।
___ "श्री पाश्वनाथ ने सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह इन तीनों नियमों के साथ अहिंसा का मेल बिठाया । पहले भरण्य में रहने वाले ऋषि-मुनियों के प्राचरण में जो हिंसा थी, उसे व्यवहार में स्थान न था । तथा तीन नियमों के सहयोग से अहिंसा सामाजिक बनी, व्यावहारिक बनी।"
ठाणांग २०१५० के अनुसार उस चातुर्याम में १ सर्व प्राणातिपात विरति (सव्यामो पाणाइवायग्रो बेरमण) २ सर्व मृषावाद विरति (सब्यानो मुसावायनो वेरमणं), ३ सर्वप्रदत्तादान विरति(सव्वानो प्रदत्तादाणाम वेरमणं), ४ सर्व वहिरादान विरति(सज्वानो वहिद्धदाणामो वेरमण)ये चार व्रत थे। भगवान महाबोर ने चातुर्याम के स्थान पर पंच शिक्षिक या पंच महावत बतलाये थे। ये पंचमहानत चातुर्याम के ही विस्तृत रूप थे । मूल दृष्टिकोण में कोई अन्तर नहीं था।
"इसी चातुर्याम का उपदेश भगवान पार्श्वनाथ ने दिया था और उन्होंने इसो के द्वारा अहिंसा का भारतव्यापी प्रचार किया था। ईसवी सन से आठ शताब्दी पूर्व भगवान पार्श्वनाथ ने चातुर्याम का जो उपदेश दिया था वह काल अत्यन्त प्राचीन है और वह उपनिषद् काल, बल्कि उससे भी प्राचीन ठहरता है।"
भगवान पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म का प्रभाव अत्यन्त दूरगामी हा । उनके बाद जितने धर्म संस्थापक हुए, उन्होंने अपने धर्म सिद्धान्तों की रचना में पार्श्वनाथ के चातुर्यामों से बड़ी सहायता ली। इनमें प्राजोवक मत के संस्थापक गोशालक और बौद्ध मत के संस्थापक बुद्ध मुख्य है बद्ध के जीवन पर तो पार्श्वनाथ के चातुर्याम की गहरी
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१.० हर्मन जैकोबी (परिशिष्ट पर्व पृ० १)