Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 360
________________ भगवान पार्श्वनाथ का लोकव्यापी प्रभाव करकण्ड पार्श्वनाथ के अनुयायी थे और उन्होंने तेर (जिला उस्मानाबाद) में लयण स्थापित किये और पार्श्वनाथ भगवान की मूर्तियों की स्थापना की। इस प्रकार अनेक नरेश पार्श्वनाथ के काल में और उनके पश्चात्काल में पार्श्वनाथ को अपना इष्टदेव मानते थे । 4x4 भगवान पार्श्वनाथ का बिहार जिन देशों में हुआ था, उन देशों में अंग, बंग, कलिंग, मगध, काशो, कोशल, अवन्ति, कुरु, पुण्ड्र, मालव, पांचाल, विदर्भ, दशार्ण. सौराष्ट्र, कर्नाटक, कोंकण, लाट, कच्छ, काश्मीर, शाक, पल्लव, और आभीर आदि देश थे। ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं कि वे तिब्बत' में भी पधारे थे। भगवान ने जिन देशों बिहार किया था, वहाँ सर्वसाधारण पर उनका व्यापक प्रभाव पड़ा था और वे उनके भक्त बन गये थे । उनके लोकव्यापी प्रभाव का ही यह परिणाम है कि तीर्थकर मूर्तियों में सर्वाधिक मूर्तियाँ पार्श्वनाथ की ही उपलब्ध होती हैं और उनके कारण पद्मावती देवी की भी इतनी ख्याति हुई कि आज भी शासन देवियों में सबसे अधिक मूर्तियां पद्मावती की ही मिलती हैं। पार्श्वनाथ की जन्म नगरी काशी काशी की तीर्थक्षेत्र के रूप में प्रसिद्धि सातवें तीर्थकर सुपार्श्वनाथ के काल से ही हो गई थी। किन्तु यह सर्वमान्य तीर्थं बना पार्श्वनाथ के कारण पार्श्वनाथ काशी के वर्तमान भेलूपुरा मुहल्ले में काशी नरेश श्वसन को महारानो वामादेवी की पवित्र कुक्षि से उत्पन्न हुए थे । यहाँ पन्द्रह माह तक कुबेर ने रत्न वर्षा की थी। यहीं देवों औौर इन्द्रों ने उनके गर्भ जन्म कल्याण कों के महोत्सव मनाये थे । उस काल में गंगा का सम्पूर्ण प्रदेश वानप्रस्थ तपस्वियों का केन्द्र था । वाराणसी तथा गंगा तट के अन्य प्रदेशों में अनेक प्रकार के तापस नाना नाम रूप धारण करके विचित्र क्रियाओंों में रत रहते थे। नानाविध वेष धारण करने और विचित्र-विचित्र प्रकार की क्रियायें करने का उनका उद्देश्य जनता को अपनी ओर आकर्षित करना और पने आपको महान तपस्वी सिद्ध करके जनता में प्रतिष्ठा प्राप्त करना था । उन तापसों की इन क्रियाओं से विवेक और धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं था। होत्तिय तापस अग्निहोत्र करते थे । कोत्तिय भूमि पर सोते थे । पोत्तिय वस्त्र पहनते थे । जण्णई यज्ञ करते थे । थाल अपना सब सामान साथ लेकर चलते थे। हुंदाट्ठ कुण्डिका लेकर चलते थे । दन्तु लिय दांत से पीस कर कच्चा अन्न खाते थे। मियशुद्धय जीव हत्या करते थे। इसी प्रकार अ'बुवासी विलवासी, जलवासी, रक्खमूला, सेवासभक्खी आदि न जाने कितने प्रकार के तापस इस क्षेत्र में सक्रिय थे। इन सबका बड़ा रोचक और विस्तृत वर्णन श्वेताम्बर आगम ग्रन्थ 'उववाई सूत्र' में मिलता है । I उस समय नाग पूजा और यक्ष-पूजा बहुत प्रचलित थी । इतिहासकारों ने इसके मूल स्रोत और कारणों के सम्बन्ध में विभिन्न मत प्रगट किये हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि नाग जाति और उसके वोरों के शौर्य को स्मृति को सुरक्षित रखने के लिए नाग-पूजा प्रचलित हो गई। किन्तु नाग पूजा का यह कोई युक्तियुक्त कारण नहीं लगता। भारत में नाग जाति श्रत्यन्त प्राचीन काल से मिलती है। नाग जाति श्रत्यन्त सुसंस्कृत, समृद्ध और सुन्दर जाति थी । नाग कन्याओं के सौन्दर्य की चर्चा प्राचीन साहित्य में अनेक स्थलों पर मिलती है। रामायण और महाभारत में अनेक नाग कन्याओं के विवाह की चर्चा श्राई है। राम पुत्र लवणांकुश का विवाह एक नाम - कन्या _ के साथ हुआ था। अर्जुन की दो रानियां - चित्राङ्गदा और उलूपी नाग कन्याये थीं। शूरसेन प्रदेश के अधिपति शुर की माता और उग्रसेन की रानी नाग जाति की थी। नाग जाति के उपद्रवों को समाप्त करने के लिए श्रीकृष्ण और अर्जुन ने खाण्डव वन का दाह किया था। उस वन में नाग लोग रहते थे । खाण्डव वन में चारों ओर से आग लगने पर उस वन के बीच में बसे हुए नागों की बस्तियाँ जलकर भस्म हो गई और उनके साथ अनेक नाग स्त्रीपुरुष जल मरे । संयोग से उन नागों का सरदार तक्षक उस समय कहीं बाहर गया हुआ था। जब उसे इस कुटिल षड्यन्त्र का पता चला तो वह क्रुद्ध हो उठा। वह बल-संचय करने के लिए उत्तरापथ की ओर चला गया और विशाल वाहिनी लेकर उसने हस्तिनापुर के ऊपर आक्रमण कर दिया। उस समय हस्तिनापुर में अर्जुन का पौत्र परीक्षित शासन कर रहा था। परीक्षित ने प्रतिरोध करने का प्रयत्न किया। किन्तु सफल नहीं हो सका और मेजर जनरल फलोग

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