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भगवान पार्श्वनाथ का लोकव्यापी प्रभाव छाप थी। बे प्रारम्भ में पाश्र्वापत्य अनगार पिहिताथव से दीक्षा लेकर जैन श्रमण भी बने थे, इस प्रकार के उल्लेख रत्नकरण्ड श्रावकाचार १-१० प्रादि ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। जैन साहित्य में बताया गया है कि भगवान पार्श्वनाथ के तीर्थ में सरयू नदी के तटवती पलाश नामक नगर में पिहिताश्रव साधु का शिष्य बुद्धकीर्ति मुनि हुआ। वह बहुश्रुत एवं शास्त्रज्ञ था। किन्तु मत्स्याहार करने के कारण वह दीक्षा से भ्रष्ट होगया और रक्ताम्बर धारण करके उसने एकान्त मत की प्रवृत्ति की।
इस उल्लेख से स्पष्ट है कि बुद्ध पाश्वपित्य सम्प्रदाय में दीक्षित हुए थे। यह भी कहा जाता है कि वे छह वर्ष तक जनश्रमण रहे किन्तु तपस्या की कठिनाईयों से घबड़ा कर उन्होंने जैन मार्ग का परित्याग कर दिया। 'दोच निकाय' में स्पष्ट उल्लेख है कि मैंने जैन श्रमणोचित तप किये, केश लंचन किया।
बौद्ध विद्वान् प्राचार्य धर्मानन्द कौशाम्बी ने 'पार्श्वनाथ का चातर्याम धर्म' निबन्ध में लिखा है-"निग्रन्थों के श्रावक बप्प' शाक्य के उल्लेख से स्पष्ट है कि निर्ग्रन्थों का चातुर्याम धर्म शाक्य देश में प्रचलित था, परन्तु ऐसा उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि उस देश में निर्ग्रन्थों का कोई आश्रम हो । इससे ऐसा लगता है कि निर्ग्रन्थ श्रमण वीच बीच में शाक्य देश में जाकर अपने धर्म का उपदेश करते थे।....."तब वोधिसत्व 'उद्रक रामपुत्र का पाश्रम छोड़कर राजगह चले गये। वहाँ के श्रमण सम्प्रदाय में उन्हें शायद निर्ग्रन्थों का चातुर्याम संवर ही विशेष पसंद आया क्योंकि आगे चलकर उन्होंने जिस मार्य अष्टांगिक मार्ग का प्रवर्तन किया, उसमें चातुर्याम का समावेश किया गया है।"
कौशाम्बीजी ने जिस वप्प शाक्य का उल्लेख किया है, वह बद्ध का चाचा था और वह पार्श्वनाथ के धर्म का अनुयायी था। इससे स्पष्ट है कि तथागत बुद्ध के कुल पर भी पार्श्वनाथ के धर्म की गहरी छाप थी । बुद्ध उसी धर्म की छाया में बढ़े और उस धर्म के संस्कारों ने उनके जीवन पर गहरा प्रभाव डाला।
उस समय वैदिक सम्प्रदाय में पुत्रषणा, लोकषणा और वित्तषणा के लिये हिसामुलक यज्ञ किये जाते थे तथा शरीर को केवल कष्ट देने को ही तप माना जाता था। किन्तु पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म ने वैदिक धर्मानुयाथियों के मानस को झकझोर डाला। वेदों की आधिदैविक मान्यता जनता के मन को सन्तुष्ट नहीं कर पा रही थी। श्रमण निर्ग्रन्थों का तप यज्ञ प्रार्यों को अपने पशु यज्ञों की अपेक्षा प्रौर अज्ञान तप की अपेक्षा अधिक प्रभावक भौर पाकर्षक प्रतीत होता था। यही कारण था कि महीपाल तपस्वी के सात सौ शिष्यों ने पार्वनाथ के परणों में पाकर श्रमण दीक्षा ले लो। यह महान तप पर पाश्वनाथ के श्रमणों के ज्ञान तपकी सार्वजनिक विजय भी।
किन्तु इससे भी अधिक प्रभाव पड़ा मूल वैविक मान्यतामों और विचारधारा पर। यह प्रभाव बड़े सहज रूप में पड़ा, जिसकी कल्पना दोनों पक्षों में से किसी ने भी नहीं की होगी। पावनाय के निर्ग्रन्थ वनों में रहते थे। उनके रहने और ध्यान के स्थानों को निषद्, निषदी प्रादि नामों से पुकारा जाता था । वैदिक प्रार्य उनके सिद्धान्तों और आचरण से ग्राकर्षित होकर उनका उपदेश सुनने वहाँ जाते थे। उन निषदों के समीप बैठकर उन्होंने जो उपदेश ग्रहण किया पौर प्रकृति के तत्वों की पूजा के स्थान पर मध्यात्म को ग्रन्थों में गुम्फित किया, उन ग्रन्थों का नाम ही - उन्होंने भाभार की भावना से उपनिषद् रख दिया । निष्पक्ष दृष्टि से उपनिषदों का अध्ययन करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उपनिषदों में जिस प्रध्यात्म की विस्तृत चर्चा की गई है, उसका मूल स्रोत वेद नहीं, कोई और ही है और वह वस्तुतः पार्श्वनाथ के श्रमणों का उपदेश है।
पार्श्वनाथ ने भारत के.अनेक भागों में विहार करके पहिंसा का जो समर्थ प्रचार किया, उससे मनेक अनार्य प्रौर मार्य जातियां उनके धर्म में दीक्षित हो गई। नाग, द्रविड़ प्रादि जातियों में उनकी मान्यता असंदिग्ध थी। वेदों और स्मृतियों में इन जातियों का वेदविरोधी वात्य के रूप में उल्लेख मिलता है।
वस्तुतः व्रात्य श्रमण संस्कृति की जैन धारा के अनुयायी थे। इन प्रात्यों में नाग जाति सर्वाधिक शक्तिशाली थी। तक्षशिला, उद्यानपुरी, अहिच्छत्र, मथुरा, पावती, कान्तिपुरी, नागपुर प्रादि इस जाति के प्रसिद्ध केन्द्र थे। पार्श्वनाथ नाग जाति के इन केन्द्रों में कई बार पधारे थे। एक बार वे नागपुर (वर्तमान हस्तिनापुर) में पधारे ।
अंगुप्तर निकाय