________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
भगवान पाश्र्वनाथ का चतुवि संघ --- भगवान पार्श्वनाथ के समवसरण में स्वयम्भू प्रादि १० गणधर थे । ३५० मुनि पूर्व के ज्ञाता, १०९०० शिक्षक, १४०० अवधिज्ञानी, १००० केवलज्ञानी, १००० विक्रियाद्विधारी, ७५० मन:पर्ययज्ञानी और ६०० वादी थे। इस प्रकार कुल १६००० मुर्ति थे। सुलोचना प्रादि ३६००० धायिकायें थीं। इनके अतिरिक्त १००००० श्रावक और ३००००० श्राविकायें तथा मसंख्यात देव देवियां और संख्यात तिर्यच थे ।
३४०
।
निर्वाण कल्याणक - भगवान पार्श्वनाथ देश के विभिन्न क्षेत्रों में बिहार करके ६१ वर्ष ७ माह तक धर्मोद्योत करते रहे। जब उनकी आयु में एक माह शेष रह गया, तब वे छत्तीस मुनियों के साथ सम्मेदशिखर पर जाकर प्रतिमा योग धारण कर विराजमान होगये । अन्त में श्रावण शुक्ला सप्तमी को विशाखा नक्षत्र में प्रातःकाल के समय अघातिया कर्मों का क्षय करके मुक्त हो गये। तभी इन्द्रों ने आकर उनके निर्वाण कल्याणक का उत्सव किया। भगवान पार्श्वनाथ जन्म-जन्मान्तरों की निरन्तर साधना के द्वारा ही भगवान बने। उन पूर्व जन्मों का विवरण जानना रुचिकर होगा। वे पहले मरुभूति मंत्री बने, फिर सहसार स्वर्ग में देव बने। वहाँ से प्राकर वे विद्याधर हुए। तब अच्युत स्वर्ग में देव हुए प्रायु पूर्ण होने पर वे वचनाभि चक्रवर्ती हुए । वहाँ छह खण्डों का राज्य-वैभव और भोगों का उपभोग करते हुए श्रायु पूर्ण होने पर मध्यम ग्रैवेयक में ग्रहमिन्द्र बने । देव पर्याय के पश्चात् वे मानन्द नामक राजा हुए। इसी पर्याय में उन्होंने तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया । अन्त में समाधिमरण करके वे आनत स्वर्ग के इन्द्र बने । इन्द्र पद का भोग करते हुए भी वे भांग में लिप्त नहीं हुए, अपितु उनका अधिक समय धर्म-श्रवण, तीर्थंकरों के उपदेश श्रवण, तीर्थ-वन्दन आदि में ही व्यतीत होता था । जब उनकी आयु समाप्त हुई, तब वे काशी में प्रश्वसेन के पुत्र पार्श्वनाथ हुए। इस प्रकार उनकी जो साधना मरुभूति के जन्म में प्रारम्भ हुई थी, वह पार्श्वनाथ के रूप में पूर्ण हुई ।
पार्श्वनाथ और सम्बर के भवान्तर
इस प्राध्यात्मिक अभ्युदय के विरुद्ध नैतिक अधःपतन का एक घिनौना व्यक्तित्व कमठ के रूप में उभरा, जिसने पार्श्वनाथ के विभिन्न जन्मों में उनसे प्रकारण वर करके उनका अहित करने का प्रयत्न किया किन्तु वे अपनी माध्यात्मिक साधना की बुलन्दी पर चढ़ते गये और अन्त में कमठ को वह भवांछनीय व्यक्तित्व पार्श्वनाथ की शरण में पाकर एकदम निखर उठा। तब उसने क्षुद्रता का बाना उतार फेंका। क्षुद्र से क्षुद्र व्यक्ति भी विवेक जागृत करके अपने जीवन को सुधार सकता है, कमठ का इतिहास इसका एक समर्थ उदाहरण है। मरुभूति के जीवन में उसी के सहोदर कमठ ने विष घोलने का प्रयत्न किया। यहां तक कि सहोदर के स्नेह में प्राकुल मरुभूति को प्रविवेकी और क्रोधान्ध कमठ ने पत्थर द्वारा मार दिया। मरुभूति तो सरकर देव बना अपने शान्त परिणाम के कारण, किन्तु दुष्ट कमठ अपने ही क्रोष में जलकर मरा और कुक्कुट सर्प बना । वहाँ आयु पूरी करके पाँचवें नरक में उत्पन्न हुआ। वहाँ से निकल कर वह अजगर बना। वह क्रोध के कारण पुनः तरक में गया । म्रायु समाप्त होने पर वह भील हुमा । फिर नरक में पहुँचा । तब वहाँ से ग्राकर सिंह बना। फिर नरक में गया। वहाँ से निकलने पर वह महीपाल राजा बना और तपस्या करके सम्बर देव हुआ। किन्तु इतने जन्मों के बाद भी संस्कार के रूप में पाले हुए कोष और वैर के कारण उसने भगवान पार्श्वनाथ को दुःख पहुँचाने के प्रथक और अनेक प्रयत्न किये। पाखनाथ तो अपनी असीम धीरता, शान्ति और क्षमा द्वारा वीतरागता के साकार स्वरूप बनकर सर्वज्ञ सर्वदर्शी बन गये । सम्बर अपने देवी बल की निस्सारता का अनुभव करके पार्श्वनाथ के चरणों में या गिरा और रो रोकर, प्रायश्चित द्वारा अपने जन्म जन्मान्तरों से संचित कोष और वैर के मैल को प्रांसुओं के रूप में बहाता रहा। हिंसा महिंसा के सामने हार मान गईं, उसने सदा ही हार मानी है और यह अहिंसा का हो प्रभाव है कि क्षुद्र सम्बर का हृदय परिवर्तन हुमा ।
भगवान पार्श्वनाथ के यक्ष का नाम धरमेन्द्र और यक्षिणी का नाम पद्मावती है। तीर्थंकरों के शासन देवों औौर शासन देवियों में ये दोनों ही सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं, विशेषतः पद्मावती की ख्याति सबसे अधिक है। यही
१. पासनाइचरित के अनुसार मुख्य आर्यिका का नाम प्रभावती था ।