Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 353
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास ३२८ नगर, पर्वत तक उड़ गए। जब इतने पर भी पार्श्वनाथ ध्यान से विचलित नहीं हुए, तब वह अधिक क्रोधित होकर नाना प्रकार के भयंकर शस्त्रास्त्र चलाने जपा | वे शस्त्र के प्रतीकर के शरीर पर पुष्प बनकर गिरते थे। जब घातक शस्त्र भी निष्फल हो गये, तब सम्बर ने माया से अप्सरात्रों का समूह उत्पन्न किया। कोई गीत द्वारा रस संचार करने लगी, कोई नृत्य द्वारा वातावरण में मादकता उत्पन्न करने लगी । अन्य प्रप्सरायें नाना प्रकार के हाव भाव और चेष्टायें करने लगीं । किन्तु ग्रात्म ध्यानी वीतराग पाश्र्व जिनेन्द्र अन्तविहार में थे, उन्हें पता ही नहीं था । किन्तु देव भी हार मानने वाला नहीं था। उसने भयानक रौद्रमुखो हिंसक पशुओं द्वारा उपसर्ग किया; कभी भयंकर भूत-प्रेतों की सेना द्वारा उत्पात किया; कभी उसने भीषण उप वर्षा की। उसने पार्श्वनाथ पर श्रचिन्त्य, प्रकल्प्य उपद्रव किये, सारी शक्ति लगादी उन्हें पीड़ा देकर ध्यान से विचलित करने की किन्तु वह धीर वीर महायोगी अविचल रहा । वह तो वाह्य से एकदम निर्लिप्त, शरीर से निर्मोह होकर आत्म रस में बिहार कर रहा था । सम्बर के द्वारा किये गये भयानक उपसगों की निम्फलता का सजीव चित्रण करते हुए आचार्यप्रवर सिद्धसेन दिवाकर ने 'कल्याण मंदिर' स्तोत्र में लिखा है 'प्राग्भारसम्भूतनभांति रजांसि रोषादुत्यापितानि कमठेन शठेन यानि । छायापि तस्तव न नाय हता हताशो प्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं दुरात्मा ॥३१॥ अर्थात् हे नाथ ! उस दुष्ट कमठ ने क्रोधावेश में जो धूल आपके ऊपर फेंकी, यह आपकी छाया पर भी घात नहीं पहुँचा सकी । इस प्रकार उस दुष्ट सम्बर देव ने सात दिन तक पार्श्वनाथ के ऊपर घोर उपसर्ग किये । यहाँ तक कि उसने छोटे मोटे पर्वत तक लाकर उनके समीप गिराए । अवधिज्ञान से यह उपसर्ग जानकर नागेन्द्र धरणेन्द्र अपनी इन्द्राणी के साथ वहाँ प्राया । वह फणा रूपी मण्डप से सुशोभित था । धरणेन्द्र ने भगवान को चारों ओर से घेरकर अपने फणों के ऊपर उठा लिया। पद्मावती देवी भगवान के ऊपर वज्रमय छत्र तानकर खड़ी हो गई श्राचार्य पद्मकीर्ति ने 'पासनाह चरिउ' में इस घटना का सजीव वर्णन करते हुए कुछ ऐसा विवरण उपस्थित किया है जो संभवतः किसी जैन ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होता । यद्यपि वह विवरण परम्परा के अनुकूल नहीं है, किन्तु वह है अत्यन्त रोचक । अतः पाठकों की जानकारी के लिये यहाँ दिया जा रहा है 'घोर और भीषण उपसर्ग करने वाले तथा विपुल शीतल जल की वृष्टि करने वाले असुर की लगातार सात रात्रियां व्यतीत हुई; तब भी उसका मन द्वेष रहित नहीं हुआ । घनों द्वारा बरसाया गया जल ज्यों-ज्यों गिरता था, त्यों-त्यों वह जिनेन्द्र के कन्धे तक पहुँचता था । जब जल जिनेन्द्र के कन्धे को पार कर गया तब धरणेन्द्र का आसन कम्पित हुआ । उसने तत्काल ही अवधि ज्ञान का प्रयोग किया और समस्त कारण की जानकारी की। जिसके प्रसाद से मुझे नीरोगता और देवत्व की प्राप्ति हुई, उसके ऊपर महान् उपसर्ग उपस्थित है। वह उसी क्षण नागकन्याओं से घिरा हुआ चल पड़ा। मणि किरणों से शोभित तथा मन में मान धारण किये हुए वह नाग पाताल से निकला तथा मंगल ध्वनि करता हुआ और नागकन्यायों से घिरा हुआ तत्काल वहाँ श्राया। उसने जल में विकसित कमल निर्मित किया । उस कमल पर नागराज अपनी पत्नियों के साथ मारूढ़ हो गया। नागराज ने जिनवर की प्रदक्षिणा दी, दोनों पाद-पंकज में प्रणाम किया तथा वन्दना की। फिर उसने जिनेन्द्र को जल से उठाया । उसने जिनवर के दोनों चरणों को प्रसन्नता से अपनी गोदी में रखा तथा तीर्थकर के मस्तक के ऊपर अपना लहलहाता हुआ विशाल फण-मण्डप फैलाया। वह सात फणों से समन्वित था। उस नाग ने फणों के द्वारा पटल को छिद्र रहित बनाया और माकाश से गिरते हुए जल का प्रवरोध किया । प्राकाश से जैसे जैसे जल गिरता था, वैसे वैसे वह कमल बढ़ता जाता था । असुर ने नागराज और उसकी पत्नियों को देखा, वह अत्यन्त क्रुद्ध होकर नागराज से बोला- 'मेरे साथ कलह करना तुम्हारे लिये उपयुक्त नहीं है। मैं तुम्हारे और अपने इस शत्रु के सिर पर अभी बज पटकता हूँ।' यह कहकर उसने भीषण बम फेंका। नागराज ने उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये । तब उसने परशु, भाला और शर समूह छोड़ा। वे भी नागराज के पास तक नहीं पहुँचे । तब वह पर्वत शिखरों से

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