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भगवान पारवनाथ
की इच्छा नहीं की' किया है। कुछ तो इससे भी दो कदम आगे बढ़ गये और उन्होंने 'इत्थियाभिसेया' के स्थान पर 'इच्छियाभिसेया' यह संशोधित पद लिखकर अपनी मान्यता की पुष्टि की।
पार्श्वनाथ का राग्य और वीक्षा पार्श्वनाथ जब तीस वर्ष के हुए, तब एक दिन अयोध्या के राजा जयसेन ने भगली देश में उत्पन्न हुए घोडे आदि की भेंट के साथ अपना दूत पार्श्वनाथ के पास भेजा। पार्श्वनाथ ने भेट स्वीकार करके राजदूत का यथोचित सम्मान किया और उससे अयोध्या.की विभूति के बारे में पूछा। राजदूत ने भगवान ऋषभदेव और उनकी अयोध्या के वैभव का वर्णन करते हुए वर्तमान अयोध्या की श्रीसमृद्धि का वर्णन किया । भगवान ऋषभदेव की चर्चा सुनकर पार्श्वनाथ गहरे चिन्तन में डूब गये-मुझे तीर्थकर प्रकृति का बन्ध तो अवश्य हुना, किन्तु उससे क्या लाभ हुमा । मैंने अब तक श्रात्मकल्याण नहीं किया । धन्य हैं भगवान ऋषभदेव, जिन्होंने मोक्ष प्राप्त कर लिया। मैंने प्रब तक जीवन व्यर्थ खोया, किन्तु अब मुझे जीवन के एक-एक क्षण को प्रात्म कल्याण के लिये समर्पित करना है।
यह विचार प्राते ही उनके मन में देह और भोगों के प्रति निर्वेद उत्पन्न हो गया। उन्होंने घरवार छोड़. कर संयम धारण करने का निश्चय कर लिया। तभी लौकान्तिक देव आये और उन्होंने प्रभु के विचार की सराहना की पौर प्रार्थना की—'भगवन ! प्रब तीर्थ-प्रवर्तन की वेला प्रा पहुँची है। अज्ञान तप और हिंसा में आस्था रखने वाले मानव को प्रापके मार्ग-दर्शन की आज आवश्यकता है। प्रभो ! सन्तप्त प्राणियों पर दया करें।' इस प्रकार प्रार्थना करके भगवान को नमस्कार किया और वे अपने स्थान को लौट गये।
तभी इन्द्र और देवों ने आकर मादानका कमाण अभिषेक किया और भामार को वस्त्राभरणों से प्रलंकृत किया। भगवान ने माता-पिता और परिजनों से दीक्षा लेने की अनुमति ली और देव निर्मित विमला नामक पालकी में विराजमान होकर अश्व वन में पहुँचे । वहाँ तेला का नियम लेकर एक शिलातल पर उत्तराभिमुख होकर पर्यशासन से विराजमान हो गये और ॐनमः सिद्धेभ्यः' कहकर केशल चन किया और तीन सौ राजामों के साथ दीक्षा लेली । उस दिन पौष कृष्णा एकादशी का प्रातः काल का समय था । इन्द्र ने भगवान के पवित्र केशों को रत्न मंजूषा में रक्खा और क्षीरसागर में उनका क्षेपण कर दिया। दीक्षा लेते ही भगवान ने सामायिक चारित्र धारण किया और विशुद्धता के कारण चतुर्थ मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया।
भगवान पारणा के दिन आहार के लिये गुल्मखेट नगर में गये। वहाँ श्याम वर्ण वाले धन्य राजा ने नवघा भक्तिपूर्वक भगवान को पड़गाह कर परमान्न पाहार दिया । देवों ने पंचाश्चर्य किये-शीतल सुगन्धित पवन बहने लगी, सुरभित जल की पुष्टि हुई, देव-दुन्दुभि हुई, देवों ने पुष्प वर्षा की और जय-घोष किया-धन्य यह दान, धन्य यह दाता और धन्य यह सुपात्र । भगवान आहार लेकर बिहार कर गये।
पार्श्वनाथ के वैराग्य का कारण क्या था, इस सम्बन्ध में तीन मत मिलते हैं। एक तो उत्तर पुराण का मत जो ऊपर दिया गया है। इस परम्परा में पुष्पदन्त हैं। दूसरा मत है गयकीति का, जिन्होंने कमठ तापम के साथ घटित घटना तथा सपों की मृत्यु को पार्श्वनाथ के वैराग्य का कारण बताया है । हेमचन्द्र ने इसी परम्परा का मनुकरण किया है। तीसरा मत है-वादिराज का जिन्होंने पार्श्वनाथ की स्वाभाविक विरक्त प्रवृत्ति को मुख्य आधार माना है। देवभद्र सरि, भानदेव सूरि और हेमविजय गणि ने वसन्त ऋतु में उद्यान में नेमिनाथ के भित्तिचित्रों को देखकर पार्वनाथ को वैराग्य हुमा माना है। किन्तु उत्तर पुराणकार की मान्यता है कि जब पार्श्वनाथ कमठ तापस से मिले थे, उस समय पार्श्वनाथ की आयु केवल सोलह वर्ष की थी और उन्होंने तीस वर्ष की आयु में दीक्षा ली। ऐसी दशा में कमठ की घटना उनके वैराग्य का कारण नहीं बन सकती थी।
भगवान को दीक्षा लिए हुए चार माह व्यतीत हो गये । तब उन्होंने जिस बन में दीक्षा ली थी, उसी वन में जाकर देवदारु वृक्ष के नीचे विराजमान हुए। वे सात दिन का योग लेकर ध्यानमग्न हो गए 1 तभी सम्बर देव अपने
विमान द्वारा प्रकाशमार्ग से जारहा था । अकस्मात् उसका विमान रुक गया। देव ने अपने सम्बर द्वारा विभंगावधि ज्ञान से देखा तो उसे अपने पूर्वभव का वर स्मरण हो पाया ! वह क्रोध में फुकारपाश्र्वनाप के ऊपर ने लगा। उसने भीषण गर्जन तर्जन करके प्रलयंकर वर्षा करना प्रारंभ कर दिया। फिर उसने घोर उपसर्ग प्रचण गर्जन करता हुमा पवन प्रवाहित किया। पवन इतना प्रबल वेग से बहने लगा, जिसमें वृक्ष,