Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 350
________________ भगवान पार्श्वनाथ ३३५ हैं कि पार्श्वनाथ का विवाह नहीं हुआ और वे कुमार अवस्था में ही प्रब्रजित हुए। श्वेताम्बर परम्परा में इस विषय में दो मत हैं। इन दो मतों के आधार पर श्वेताम्बर प्राचार्य दो वर्ग में विभाजित हो गये हैं । एक वर्ग, जो प्राचीन परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है, उसका मत है कि पार्श्वनाथ प्रविवाहित रहे और कुमार वय में प्रब्रजित हुए। दूसरे वर्ग का मत इसके विरुद्ध है और पार्श्वनाथ को विवाहित स्वीकार करता है । दिगम्बर परम्परा यहाँ दोनों परम्पराम्रों की मान्यतायों का उल्लेख करना अत्यन्त रुचिकर होगा । प्राचार्य यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ती में बताया है किणेमीमल्ली वीरो कुमारकालम्मि वासुपुज्जो प । पासो षि य गतियां सेसजिणा रज्जचरमम्मि ॥। ४।६७० । अर्थात् भगवान नेमिनाथ, मल्लिनाथ, महावीर, वासुपूज्य और पार्श्वनाथ इन पांच तीर्थंकरों ने में मोर शेष तीर्थंकरों ने राज्य के अन्त में तप को ग्रहण किया । कुमारकाल यतिवृषभ की इस परम्परा में पद्मचरित उतरपुराण, महापुराण, सिरिपासनाह चरिउ और पासचारिय जैसे सभी दिगम्बराम्नाय के शास्त्र सम्मिलित हैं। सभी ने पार्श्वनाथ को कुमार प्रब्रजित स्वीकार किया है। इस परम्परा के पद्मकीर्ति ने पासनाहचरिउ में पार्श्वनाथ के विवाह का प्रसंग तो उठाया है, किन्तु विवाह हुआ नहीं। पद्मकोति ने यवनराज के साथ पार्श्वनाथ के युद्ध का वर्णन किया है। कुशस्थल का राजा रविकीर्ति या भानुकीर्ति था जो पार्श्वनाथ का मामा था। जब उसके पिता शक्रवर्मा रविकीर्ति के ऊपर राज्य भार सौंपकर जिन-दीक्षा लेकर चले गये तो राज्य को निर्बल जानकर यवनराज ने एक दूत भेजकर रविकीर्ति से कहलाया कि तुम अपनी कन्या प्रभावती का विवाह मेरे साथ कर दो और मेरी प्राधीनता स्वीकार करो, अन्यथा तुम्हें अपने भों से हाथ धोना पड़ेगा। कति में सहायता के लिये वाराणसी नरेश ह्यसेन के पास अपना दूत भेजा । पिता की आज्ञा लेकर पार्श्वकुमार सेना सहित कुशस्थल पहुंचे। वहाँ यवनराज के साथ उनका भयानक युद्ध हुआ । इसमें पार्श्वनाथ की विजय हुई | पश्चात् रविकीर्ति ने अपनी कन्या प्रभावती का विवाह पार्श्वकुमार के साथ कर देने का विचार किया। पार्श्वकुमार ने भी अपनी स्वीकृति देदी। किन्तु तभी वे दन में ग्राश्रम के तापसों को देखने गये। वहाँ कमठ तास ने मना करने पर भी लकड़ी काटी। उसमें सर्प सर्पिणी की मृत्यु हो गई। इसे देखकर पार्श्व कुमार को वैराग्य हो गया और उन्होंने दीक्षा लेली । पद्मकीर्ति ने संभवतः यह प्रसंग विमलसूरि के पउमचरित्र से उधार लिया है। पउम चरिउ में जनक की राजधानी यवनराज द्वारा घिर जाने पर जनक ने दशरथ को सहायता के लिये संदेश भेजा। दशरथ ने राम को युद्ध के लिए भेजा। राम ने जाकर यवनों से युद्ध किया और उसमें विजय प्राप्त की। जनक ने राम के साथ अपनी पुत्री सीता का विवाह कर दिया। संभवतः इसी प्रसंग से प्रेरणा प्राप्त करके पद्मकीर्ति ने रविकीति और पार्श्वकुमार की घटना का उद्घाटन किया और प्रभावती के विवाह का प्रसंग निरूपित किया । इस घटना का उल्लेख देवभद्रसूरि ने भी किया है। देवभद्रसूरि श्री पद्मकीर्ति के विवरण में अन्तर भी है और वह अन्तर यह है कि देवभद्रसूरि के अनुसार कुशस्थल के राजा का नाम प्रसेनजित है, जबकि पद्मकीर्ति के अनुसार कुशस्थल के राजा का नाम रविकीर्ति है । देवभद्रसूरि ने पाद को युद्ध से बचा लिया और पाव और प्रभावती का विवाह करा दिया। पश्चाद्वर्ती श्वेताम्बर लेखकों ने देवभद्रसूरि का ही अनुकरण किया है। किन्तु पद्मकीति के अतिरिक्त अन्य किसी दिगम्बर ग्राचार्य ने न तो इस घटना का उल्लेख ही किया है और न पार्श्वनाथ के विवाह का समर्थन ही किया है। श्वेताम्बर परम्परा - श्वेताम्बर सम्मत 'समवायांग सूत्र' नं०१६ में ग्रागारवास का उल्लेख करते हुए १९ तीर्थकरों का घर में रहकर और भोग भोगकर दीक्षित होना बतलाया है। इससे स्पष्ट है कि शेष पांच तोर्थंकर कुमार अवस्था में ही दीक्षित हुए थे। इसी प्राशय का समर्थन इस सूत्र के टीकाकार अभयदेव सूरि ने अपनी वृत्ति में किया है। उन्होंने लिखा है- शेषास्तु पंच कुमार भाव एवेत्याह' यह लिखकर 'वीरं द्विणेमी' नामक गाथा उद्भुत की है।

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