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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास और वायपुराण में ब्रह्मदत्त के उत्तराधिकारियों में योगसेन, विश्वकसेन और झल्लार के नाम दिये गये हैं। पुराणों के विश्वसेन, बौद्धजातकों के विस्ससेन और उत्तरपुरराम विवाहयो, ऐसा प्रतीत होता है। यदि यह सत्य है तो उत्तर पुराण में पार्श्वनाथ के पिता का नाम विश्वसेन और उन्हें उग्रवंश का बताया है, वह वास्तविकता के अधिक निकट है।
पार्श्वनाथ की जन्म नगरी वाराणसी के सम्बन्ध में सभी जन ग्रन्थकार एकमत हैं। किन्तु उनको जन्मविधि सम्बन्ध में साधारण सा मतभेद है। तिलोयपण्णत्तो में उनको जन्म-तिथि पौष कृष्णा एकादशो वताई है, किन्तु कल्पसूत्र में पौष कृष्णा दशमी वताई है । दिगम्बर ग्रन्थकारों ने तिलायपण्णत्ती का अनुकरण किया है और श्वेताम्बर ग्रन्थकारों ने कल्पसूत्र का। किन्तु दोनों हो परम्परायें उनके जन्म-नक्षत्र विशाखा के बारे में एकमत हैं।
नौ माह पूर्ण होने पर पौष कृष्णा एकादशी के दिन अनिल योग में महारानी व्राह्मी ने पुत्र प्रसव किया । पुत्र असाधारण था और तीनों लोकों का स्वामी था। उस पुत्र के पुण्य प्रताप से इन्द्रों के ग्रासन कमायमान होने लगे।
उन्होंने अवधिज्ञान से तीर्थकर भगवान के जन्म का समाचार जान लिया। तब इन्द्रों भगवान का और देवों ने पाकर सुमेर पर्वत पर उस अतिशय गुण्य के अधिकारी बालक का लेजाकर उसका जन्म कल्याणक महाभिषेक किया । इन्द्र ने बालक का नाम पार्श्वनाथ रक्खा । दिगम्बर परम्परा में तीर्थंकरों
का नामकरण इन्द्र ने किया है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में 'पाश्य यह नाम इन्द्र ने न रखकर माता-पिता ने रक्खा, यह माना जाता है । अावश्यक निति १०६ आदि मेताम्बर ग्रंथों में यह नाम घटनामूलक बताया जाता है। घटना इस प्रकार है कि जब पाश्र्वनाथ गर्भ में थे, तब वामादेवी ने पार्श्व (बगल) में एक काला सर्प देखा, अतः बालक का नाम पाव रक्खा गया ।
पार्श्वनाथ का जन्म नेमिनाथ के वाद ८३७५० वर्ष व्यतीत हो जाने पर हुआ था। उनको आय सौ वर्ष की थी। उनके शरीर का वर्ण धान के छोटे पौधे के समान हरे रंग का था। उनका शरीर नो हाथ ऊँचा था। वे उग्रवंश में उत्पन्न हुये थे।
पार्श्वनाथ द्वितीया के चन्द्रमा के.समान बढ़ते हुए जब सोलह वर्ष के हुए, तब वे अपनी सेना के साथ बन बिहार के लिये नगर के बाहर गये । वन में उन्होंने देखा कि एक वृद्ध तपस्वी पंचाग्नि तप कर रहा है । यह तपस्वी
महीपाल नगर का राजा महीपाल था जो पत्नी-वियोग के कारण साधु बन गया था। स्मरण पाश्चनाय और रहे, यह कमठ का ही जीव था और भव-भ्रमण करता हुग्रा महापाल राजा हुया था और महीपाल तपस्वी अंब घर द्वार छोड़कर तपस्वी बन गया था । पाश्वनाथ जन्मजाल अवधिज्ञानो थे। वे उस
तपस्वी के पास ही जाकर खड़े हो गये, उन्होंने तपस्वी को नमस्कार करना भी उचित नहीं समझा। यह बात तपस्वी को अत्यन्त अभद्र लगी । वह सोचने लगा-मैं तपोवृद्ध हूं, बयोवृद्ध हूं, इसका नाना हूँ किन्त इस अहंकारी कुमार ने मुझे नमस्कार तक नहीं किया यह सोनकर वह बहुत क्रुद्ध हया और बुझती हई अाग में लकड़ी डालने को लकड़ी काटने के लिये कुल्हाड़ी उठाई । तभी अवधिज्ञानी कुमार पार्श्वनाथ ने यह कहते हुए उसे रोका कि इस लकडी को मत काटो, इसमें सर्प हैं।' किन्तु वह साधु नहीं माना और लकड़ी काट डाली । लकड़ी के साथ उसके भीतर रहने वाले सर्प-सर्पिणी के दो टुकड़े हो गये। पावकुमार यह देखकर बोले---तुझे अपने इस कुतप का बड़ा अहंकार है किन्तु तू नहीं जानता कि इस कुतप से इस लोक और परलोक में कितना दुःख होता है। मैं तेरी अवज्ञा पा अनादर नहीं कर रहा, किन्तु स्नेह के कारण समझा रहा हूँ कि अज्ञान तप दु:ख का कारण है.'' यह कह कर मरते हुए सर्प-सर्पिणी के पास बैठवार पावकुमार ने अत्यन्त करुणा होकर उन्हें णमोकार मंत्र सुनाया और उन्हें उपदेश दिया, जिससे वे दोनों प्रत्यन्त शान्ति और समतापूर्वक पीड़ा को सहते हुए प्राण त्याग कर महान् वैभव के धारी नागकुमार जाति के देवों के इन्द्र-इन्द्राणी धरणेन्द्र और पद्मावती हुए। उधर तपस्वी महीपाल अपने तिरस्कार से क्षुब्ध होकर अत्यन्त क्रोध करता हुआ मरा और सम्वर नामक ज्योतिष्क देव हुअा।
पाश्र्वकुमार का विवाह ?--भगवान पाश्वनाथ का विवाह हुमाया नहींइस सम्बन्ध में दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा में मतभेद है। दिगम्बर परम्परा के सभी प्राचार्य इस विषय में एकमत हैं और उनकी मान्यता