Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 351
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास 'स्थानांग सूत्र' के ४७६ वे सूत्र में पांच तीर्थंकरों को कुमार प्रवजित लिखा है । 'पावश्यक नियुक्ति' गाथा न० २४३-२४४ में पांच तीर्थकरों को कुमार प्रव्रजित लिखा है। वे माथायें इस प्रकार हैं 'वीरं अरिष्टनेमि पास मल्लिं च वासुपूज्ज । एए मुत्तम जिणे अवसेसा प्रासि रायाणो ॥२४३॥ रायकुलेसु वि जाया विसुद्धवसेस वत्तिमकुलेसु । म य हस्पिप्राभिसेना कुमारवासंमि पव्वइया ॥२४४।। पन गप्पागों में बताया गया है कि महावीर, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ, मल्लिनाथ पौर वासुपूज्य ये पांच तीर्थकर राजवंशों, विशुद्धवंशों और क्षत्रियकुलों में उत्पन्न हुए थे। वे न विवाहित हुए, न उनका राज्याभिषेक हुमा बल्कि वे कुमार प्रवस्था में प्रवजित हुए। इसी प्रकार गाथा में० २४८ में भी इसी प्राशय की पुष्टि की है । वह इस प्रकार है . 'वीरो परिठ्ठणेमी पासो मल्लीवासुपुज्जो य। पदमबए पब्बया सेसा पुण पच्छिम वयंसि ॥२४८॥ इसमें बताया है कि ये पांच तीर्थंकर प्रथम वय में प्रवजित हुए और शेष पश्चिम वय में। इसके टीकाकार मलयगिरि ने इसकी टीका करते हए बताया है कि-'प्रथमवयसि कुमारस्वलक्षणे प्रजिताः, शेषाः पुनः ऋषभस्वामिप्रभुतयो 'मध्यमें वयसि यौवनस्वलक्षणे वर्तमानाःप्रवजिताः । पश्चात्कालीन टीकाकारों ने 'कुमार प्रवजित' का अर्थ 'जिन्होंने राजपद प्राप्त नहीं किया' यह किया है। समवायांग सूत्र में कुमार शब्द का अर्य अविवाहित ब्रह्मचारी किया है । आवश्यक नियुक्तिकार को भी कुमार शब्द का यही अर्थ अभिप्रेत था, जिसे उन्होंने 'गामायारा विसया निसेविता जे कुमार वग्जेहिं इस गाथा द्वारा पुष्ट किया है। इसमें बताया है-कुमार प्रवजितों को छोड़कर अन्य तीर्थंकरों ने भोग भोगे । श्वेताम्बर मुनि कल्याण विजय जी ने 'श्रमण भगवान महावीर' नामक पुस्तक के पृष्ठ १२ पर इस सम्बन्ध में नियुक्तिकार के माशय को स्पष्ट करते हुए लिखा है 'यद्यपि पिछले टीकाकार 'कुमार प्रजित' का अर्थ 'राजपद नहीं पाए हुए' ऐसा करते हैं। परन्तु मावश्यक नियुक्ति का भाव ऐसा नहीं मालूम होता। नियुक्तिकार 'ग्रामाचार' शब्द की व्याख्या में स्पष्ट लिखते हैं कि 'कुमार प्रवजितों को छोड़ अन्य तीर्थकरों ने भोग भोगे।' (गामायारा विसया ते भत्ता कुमाररहिएहि) इस व्याख्या से यह ध्वनित होता है कि पावश्यक नियुक्तिकार को 'कुमार प्रवजित' का अर्थ 'कुमारावस्था में दीक्षा लेने वाला' ऐसा अभिप्रेत है।' इसी प्रकार प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् डॉ० दलसुख मालवणिया 'स्थानांग -समवायांग' (पृ०३८) पर विचार करते हुए कुमार शब्द का अर्थ बाल ब्रह्मचारी करते हैं और दिगम्बरों की अविवाहित मान्यता को साधार मानते हैं। वे लिखते हैं.... 'समवायांग मां मोगणीसनो प्रागारवास (नहि के नपतित्व) कहे नार सूत्र मूकीनो, तो प्रेम कहेयं पर छे के त्यां कुमारनो अर्थ बाल ब्रह्मचारीज लेबो जोईए, भने वाकीनानो विवाहित, पा प्रमाणे दिगम्बरोनी मान्यताने पण मागमिक माधार छ जो एम मान पड़े छ।' इन सब प्रमाणों के प्राधार पर कहा जा सकता है कि प्राचीन पवेताम्बर साहित्य मैं पांच तीर्थंकरों को अविवाहित ही स्वीकार किया गया है। श्वे० प्रागमसाहित्य में सर्वप्रथम 'कल्पसूत्र में इन तीर्थंकरों के विवाह की कल्पना की गई है और उसी का अनुसरण देवभद्र सूरि, हेमचन्द्र मादि पश्चात्कालीन श्वेताम्बर प्राचार्यों ने किया भोर कई टीकाकारों ने समकायांग, स्थानांग और पावश्यक नियुक्ति की मूल भावना के विरुद्ध शब्दों को तोड़कर अपती मिजी मान्यतापरक पर्य किया। उदाहरण के तौर पर मावश्यक नियुक्ति की गाथा २४४ के 'ण इत्थियाभिसेया' पद का अर्थ 'प्रमितिक

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