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भगवान पार्श्वनाथ
मो भव
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आनन्द मुनि सिंह के उपसर्ग को शान्तिपूर्वक सहन कर सन्यास मरण द्वारा अच्युत' स्वर्ग के प्राणत विमान में इन्द्र बने। वहाँ पर उसकी बीस सागर की आयु थी । कमठ का जीव सिंह पर्याय समाप्त करके रौद्र परिणामों के कारण नरक' में गया ।
इस भरत क्षेत्र में काशी नामक देश में वाराणसी नामक नगर था। उसमें काश्यप गोत्री राजा विश्वसेन राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम ब्राह्मी था। जब उस अच्युतेन्द्र की श्रायु के अन्तिम छह माह शेष रह गये तो देवी ने महाराज श्वसन के महलों में रत्न वर्षा की। वैशाख कृष्ण द्वितीया को प्रातः काल के
गर्भकल्याणक
समय विशाखा नक्षत्र में रानी ब्राह्मी ने सोलह शुभ स्वप्न देते। उसके बाद अपने मुख में प्रवेश करता हुआ हाथी देखा । प्रातः काल के मंगल वाद्यों के कारण महारानी की नींद खुल गई। उन्होंने मंगल अभिषेक किया और वस्त्राभूषण पहनकर वे अपने पति के पास पहुँची। पति ने उनकी श्रभ्यर्थना की और उन्हें अपने वाम पार्श्व में स्थान दिया। महारानी ने रात्रि में देखे हुए स्वप्न बताकर उनका फल पूछा। महाराज ने अवधिज्ञान द्वारा जानकर कहा-देवि ! पुण्योदय से तुम्हारे गर्भ में त्रिलोकीनाथ तीर्थकर भाज अवतरित हुए हैं ।' पति से स्वप्नों का फल सुनकर महारानी का रोम-रोम हर्ष से भर गया। महारानी के गर्भ में मन्युतेन्द्र आयु पूर्ण होने पर अवतरित हुआ । उसी समय समस्त इन्द्रों और देवों ने आकर बड़े हर्ष से स्वर्गावतरण की वेला में भगवान के माता-पिता का कल्याणाभिषेक करके गर्भकल्याणक का उत्सव मनाया। देवों ने गर्भ के नो मास तक ग्रर्थात् गर्भ में आने के छह माह पूर्व से भगवान के जन्म पर्यन्त-- पन्द्रह माह तक माता-पिता के प्रासाद में रत्न- वर्षा करके भगवान के प्रति अपनी भक्ति की अभिव्यक्ति की ।
पार्श्वनाथ के माता-पिता के नामों के सम्बन्ध में जैनग्रन्थों में एकरूपता नहीं मिलती। उत्तरपुराण में मातापिता का नाम ब्राह्मी और विश्वसेन दिये गये हैं । पुष्पदन्त ने उत्तरपुराण का ही अनुकरण किया है किन्तु वादिराज ने माता का नाम ब्रह्मदत्ता बताया है। पद्मकीर्ति और रद्दधू ने पिता का नाम अश्वसेन के स्थान पर हयसेन दिया है। अश्व और हम समानार्थक हैं, संभवतः इसलिये यह नाम विपर्यय किया गया है । तिलोयपण्णत्ती में माता का नाम वर्मिला तथा पद्मचरित में वर्मादेवी दिया गया है । समवायाङ्ग और आवश्यक नियुक्ति में पिता का नाम श्राससेण और माता का नाम वाम मिलता है । अनेक श्वेताम्बर श्राचार्यों ने इन्हीं का अनुकरण किया है।
पार्श्वनाथ के वंश के सम्बन्ध में तिलोयपण्णत्ती में हमें जो सूचना प्राप्त होती हैं, उसके अनुसार वे उग्रवंश के थे । उत्तरपुराणकार उन्हें काश्यप गोत्री बताते हैं। श्रावश्यक नियुक्ति में भी उन्हें काश्यप गोत्र का बताया है । पुष्पदन्त पार्श्व को उग्रवंशी बताते हैं । देवभद्रसूरि हेमचन्द्र तथा कई श्वेताम्बर प्राचायों ने उन्हें इक्ष्वाकु कुलोत्पन्न माना है । किन्तु समवायाङ्ग, कल्पसूत्र, वादिराज और पद्मकीर्ति ने उनके वंश का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया ।
यदि गहराई से विचार किया जाय तो कोई मतभेद प्रतीत नहीं होता। जैन शास्त्रों के अनुसार भगवान ऋषभदेव ने जिन चार वंशों की स्थापना की थी, उनमें एक उग्रवंश भी था। काशी के महाराज प्रकंपन को यह वंश दिया गया था । मूलतः तो एक इक्ष्वाकुवंश ही था। ऋषभदेव स्वयं इक्ष्वाकुवंश के थे। लगता है, ये चारों वंश इक्ष्वाकु वंश के ही भेद थे। अतः उग्रवश भी इक्ष्वाकुवंश का ही भेद था ।
पार्श्वनाथ के माता पिता, वंश और जन्म तिथि
वृहदारण्यक उपनिषद् में गार्गी और याज्ञवल्क्य का एक संवाद मिलता है। उसमें गार्गी ने काशी भोर विदेहवासी को उग्रपुत्र कहा है--- 'काश्यो वा वैदेहो या उनपुत्रः ।' इसमें काशी के निवासी को उग्रपुत्र बताया है। उग्रपुत्र का अर्थ संभवतः उग्रवंशी होगा। इसी प्रकार बौद्धजातकों में अह्मदत्त के सिवाय वाराणसी के छह राजा और बतलाये हैंउग्गसेन, धनंजय, महासीलव, संयम, विस्ससेन और उदयभद्दा इनमें दो नाम उल्लेखनीय हैं--उगवेन और विस्तसेन । संभवत: उग्गसेन (उग्रसेन) से उपवंश की स्थापना हुई । उसी वंश में विस्ससेन (विश्वसेन) उत्पन्न हुए। विष्णुपुराण
१. कई जैनाचार्यों ने आनत के स्थान पर प्राणन, वैजयंत, दशन करून या चौदहवां कर लिखा है।
२. बाचायों में नरक के नाम के सम्बन्ध में साधारण सा मतभेद है। विभिन्न आचार्यों ने पृथक्-पृथक् नाम दिये हैं; जैसे समप्रभ, पंकप्रभा, धूमप्रभा । कुछ ने नरक का नाम न देकर केवल नरक या रौद्र नरक लिख दिया है।