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भगवान पाश्वनाथ
331 द्वितीय भव - माभूति मर कर मलय देश के कुब्जक नामक सल्लकी के बड़े भारी वन में वज्रघोष (प्रशनिघोप) नामक हाथी हमा। वरुणा मरकर उसकी हथिनी हुई। कमठ मरकर उसी वन में कुक्कुट नामक सर्प हुआ।
राजा अरविन्द एक दिन शरद काल की शोभा देख रहे थे । अाकाश में उस समय मेघ छाये हा थे। छ समय पश्चात् मंघ लुप्त हो गया। इससे राजा के मन में प्रेरणा जगी--जैसे आकाश में मेघ दिखाई दिया और अल्पकाल में ही नष्ट हो गया, इसी प्रकार देखते देखते हमारा भी नाश हो जायगा। अतः जब तक इस शरीर का नाश नहीं होता, तब तक मैं वह तप करूंगा, जिससे शाश्वत सुख की प्राप्ति हो।
इस प्रकार विचारकर अपने पुत्र का राज्याभिषेक कर और परिजनों-पुरजनों को समझा बुझाकर राजा ने पिहितास्रव नामक मुनि से मुनि-दीक्षा लेनी । तप करते हुए मुनिराज अरविन्द को अवधि ज्ञान की प्राप्ति हो गई। एक बार मूनि अरविन्द संघ के साथ सम्मेद शिखर की यात्रा के लिये निकले। वे उसी वन में पहँच जहाँ बचछोटाधी निवास करता था। सामायिक का समय होने पर वे प्रतिमायोग धारण कर विराजमान हो गये। इतनं में वह गदोन्मत्त गजराज झूमता हुम्रा उधर ही या निकला। उसके दोनों कपोलों से मद कर रहा था। मुनिराज को देखते ही वह चिघाड़ता हा उनकी पोर मारने दौड़ा । किन्तु उनके निकट ग्राते ही उनके वक्ष पर थीवत्स चिन्ह देखकर उसे विचार अाया-इनको मैंने कहीं देखा है। जब गजेन्द्र मन में इस प्रकार विचार कर रहा था, तभी मुनिराज को सामायिक समाप्त हुई। उन्होंने गजराज के मन की बात जानली । वे बोल-हे मजवर ! में राजा
अरविन्द हूँ, पोदनपुर का स्वामी हूँ। मुनि बनकर यहाँ पाया हूँ। तू मरुभूति है जो हाथी के रूप में उत्पन्न हुआ है। , तु सम्यक्त्व और अणुयतों को ग्रहण कर । इसी से तेरा कल्याण होगा।
मुनिराज का उपदेश सुनकर गजराज ने सम्यक्त्व सहित अणुव्रता को धारण किया। उस समय से यह हाथी पाप के डर से दूसरे हाथियों द्वारा तोड़ी हुई.वृक्ष की शाखाओं और सूख पत्तों को खाने लगा । पत्थरों पर गिरने स अथवा हाथियों के संघटन से जो जल प्रासुक हो जाता था, उसे ही वह पीता था। तथा प्रोषधोपवारा के बाद पारणा करता था। इस प्रकार कुछ ही दिनों में वह महा बलवान हाथो अत्यन्त दुबल हो गया । एक दिन वह नदी में पानी पीने गया था कि वहाँ कीचड़ में गिर गया। उसने उठने का कई बार प्रयत्न किया, किन्तु उठ नहीं सका। तभी (कमठ का जीब) उस कुक्कुट सर्प ने पूर्व जन्म के वैर के कारण उसे काट लिया।
तीसरा मय-वह गजराज मरकर सहस्रार' स्वर्ग में महद्धिक देव हुपा । उसकी प्रायू सोलह सागर की यी। वरुणा भी संयम को धारण कर उसी स्वर्ग में देवी बनी। कुक्कुट सर्प मरकर पांचव नरक में गया । मुनिराज अरविन्द सम्मेद शिखर पर ता करते हुए कर्मों का नाश करके मुक्त हो गये।
चौथा भव- स्वर्ग में आयु पूर्ण होने पर वहाँ से च्युत हुआ और जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में पुष्कलावतो देश। उसके बिजयाई पर्वत पर विद्यमान त्रिलोकोत्तम मामक नगर में वहाँ के राजा विद्युद्गति और रानी विधुन्माला' के रश्मिवेग' नामक पुत्र हुआ। जब रश्मिवंग राज्यासीन हुमा तो उसने अपन तमाम शत्रुओं को वश में करके खुब राज्य-विस्तार किया । वह प्रजा का बल्लभ था। उसने योवनावस्था में हो समाधिगुप्त मुनिराज के पास मुनि-दीक्षा ली। वे घोर तप में लीन हो गये । एक दिन मुनिराज हिमगिरि पर्वत को गुफा में योग धारण करके विराजमान थे। कमठ का जीव पांचव नरक की आयु पूर्ण करके इसी गुफा में अजगर हुया । मुनिराज को
१. वादिराज सूरिकृत 'सिरि पासनाह चरित में महाशुक सर्ग लिखा है। २. पुष्पदन्त न 'महापुराण' के अनुसार विद्युद्वेग, कविवर रइधू कृत 'पासचरिय के अनुसार अशनिगति । ३. महापुराण के अनुसार तडिन्माला, देवभद्र मूरिकृत "सिरि पासनाह चरिउ' के अनुसार 'तिलकावती, हेमचन्द कृत 'त्रिशप्ठि शलाका पुरुष चरित' के अनुसार कनकतिलका, पद्मकोति कृत 'पारागाह चरिड' के अनुसार 'मदनावली
हेमत्रिजगण कृत 'पाश्वं चरितम्' के अनुसार कनकतिलका, कृत 'पास चरिय' के अनुसार तड़ितबेग़ा। ४. देवभद्र मूरि, हेमवन्द्र, पदुमकीनि और हेगविजय गरिग के अनुगार किरावेग तथा रइधू के अनुसार अशनिवेग । ५. किसी ग्रन्थ में भुजंग, सर्प महोरग।