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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
देखते ही उसे भयंकर कोष प्राया और वह उन्हें निगल गया। अजगर दावानल में जलकर मर गया और छटवें नरक में उत्पन्न हुआ ।
पांचवा भव-- रश्मिवेग मरकर अच्युत स्वर्ग के पुष्कर विमान में देव हुआ । बाईस सागर की उसकी
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आयु थी ।
छटवां भव- जम्बूद्वीप के पश्चिमी विदेह क्षेत्र में पद्म नामक देश था। वहाँ अश्वपुर नगर था । वहाँ के राजा वज्रवी और रानी विजया' के बचनाभि नामक पुत्र हुआ। वह चक्रवर्ती था । षट्खण्ड पृथ्वी का वह प्रधिपति था। चौदह रत्न और नवनिधि का खाका । उसने राज्य लक्ष्मी का खूब भोग किया । किन्तु एक दिन उसने राज्य लक्ष्मी के स्थान पर मोक्ष लक्ष्मी का उपभोग करने का निश्चय किया और क्षेमंकर मुनिराज के समीप संयम धारण कर लिया ।
कमठ का जीव छटवें नरक की आयु पूर्ण करके कुरंग नामक भील हुआ। यह बड़ा क्रूर प्रकृति का था । एक दिन मुनिराज बचनाभि उसी वन में ध्यान लगाये हुए बैठे थे। चूमता फिरता वह भील उधर ही श्रा निकला । मुनिराज को देखते ही उसके मन में क्रूरता उत्पन्न होगई और वह मुनिराज के ऊपर घोर उपसर्ग करने लगा। भयंकर उपसर्ग होने पर मुनिराज आराधनाओं का आराधना कर सुभद्र नामक मध्यम ग्रैवेयक में सम्यग्दर्शन के धारक अहमिन्द्र हुए। उनकी आयु सत्ताईस सागर की थी। कमठ का जीव कुरंग भील मरकर अपने क्रूर परिणामों के कारण सप्तम नरक में नारकी हुआ।
सातवाँ भव
आठवाँ भव
आयु के अन्त में वहाँ से च्युत होकर जम्बूद्वीप के कोशल देश में अयोध्या नगर में काश्यपगोत्री इक्ष्वाकुवंशी राजा बच्चबाहु और रानी प्रभंकरी के श्रानन्द* नामक पुत्र हुआ । यौवन आने पर पिता ने उसका राज्याभिषेक कर दिया। वह अतिशय विभूतिसम्पन्न मण्डलेश्वर राजा था। एक बार फाल्गुनी भ्रष्टान्हिका में सिद्धचक विधान कराया। उसी समय विपुलमति नामक मुनिराज पधारे। प्रानन्द ने मुनिराज की वन्दना करके उनसे धर्मोपदेश सुना । मुनिराज ने जिनेन्द्र प्रतिमा और जिनमन्दिर के माहात्म्य का वर्णन करते हुए उन्हें पुण्य-बन्ध का समर्थं साघन बताया तथा इसी सन्दर्भ में उन्होंने सूर्य-मन्दिर में स्थित जिन मन्दिर की विभूति का वर्णन किया । श्रानन्द उससे इतना प्रभावित हुमा कि वह दोनों समय सूर्य - विमान में स्थित जिन प्रतिमाओं की स्तुति करने लगा। उसने कलाकारों द्वारा श्रद्धावश मणि और स्वर्ण खचित सूर्य-विमान बनवाया पोर उसके भीतर प्रत्यन्त कान्तिमान जिन मन्दिर बनवाया । राजा को सूर्य की पूजा करते देखकर प्रजाजन भक्तिपूर्वक सूर्यमण्डल की स्तुति करने लगे । भारतवर्ष में सूर्योपासना तभी से प्रचलित होगई ।
एक दिन राजा आनन्द ने दर्पण में मुख देखते हुऐ सिर में एक सफेद बाल देखा । यौवन की क्षणभंगुरता देखकर उसे संसार, शरीर और भोगों के प्रति निर्वेद होगया। उसने अपने पुत्र को राज्य देकर समुद्रगुप्त नामक मुनिराज के पास मुनिदीक्षा लेली। उन्होंने चारों माराधनाओं की श्राराधना कर परम विशुद्धि प्राप्त की और ग्यारह अंगों का अध्ययन करके सोलह कारण भावनाओं का निरन्तर चिन्तन किया, जिससे उन्हें पुण्य रूप तीर्थंकर प्रकृति का बन्द होगया । वे नाना प्रकार के तप करते हुए अन्त में प्रायोपगमन सन्यास लेकर क्षीरवन में प्रतिमायोग से विराजमान हुए । कमठ का जीव नरक की घोर यातनायें सहन करता हुआ मरकर उसी वन में सिंह बना । सिंह ने मुनिराज को देखते ही भयंकर गर्जना की और एक ही प्रहार में उन्हें प्राणरहित कर दिया ।
१. श्वेताम्बर लेखकों के अनुसार लक्ष्मीमती ।
२. पुष्पदन्त कृत महापुराण के अनुसार वज्रवाह । बादिराज के अनुसार चक्रनाभ और पद्मकीति के अनुसार चक्रायुध ।
३. श्वेताम्बर लेखकों ने कुलिशबाहु नाम दिया है जो समानार्थक है ।
४. हेमचन्द्र ने सुदंशरणा और हेमविजय गरिए ने सबंशरणा दिया है।
५. देवभद्रसूरि आनन्द के स्थान पर कनकवाहू, हेमचन्द्र और हेमविजय गणि सुवर्णबाहु पद्मकीति कनकप्रभ नाम का प्रयोग करते हैं और उसे चक्रवर्ती मानते हैं । कविवर रइष्ट्र ने नाम तो आनन्द हो दिया है किन्तु उसे चक्रवर्ती माना है।