Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 343
________________ ३२८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास एक दिन चक्रवर्ती पट्टमहिषी के साथ बैठा हुया मनोरंजन कर रहा था। वह घरोली दम्पत्ति (एक प्रकार का पक्षी) की बात सुनकर अदृहास कर उठा। महिपी पति के अकारण अद्रहास से विस्मित होकर हास्य का कारण पूछने लगी, किन्तु चक्रवर्ती रहस्योद्घाटन का परिणाम जानता था। उसने टालने का बहुत प्रयत्न किया, यहाँ तक कह दिया कि यह रहस्य है। इसे बताते ही मेरी मृत्यु हो जायगी। किन्तु महारानी भी हठ पकड़ गई । अन्त में वह त्रिया-हठ के पागे मृत्यु का वरण करने को भी तैयार हो गया। यहां तक कि उसने रानी के साथ श्मसान में जाकर चिता तैयार कराई और रहस्य बताने को उद्यत हो गया। तभी उसकी कुलदेवी अकारण अकाल मृत्यु के लिये उद्यत चक्रवर्ती को समझाने के लिये गर्भवती बकरी और बकरे का रूप बनाकर पाई। बकरी कहने लगी-नाथ ! राजा के घोड़े के खाने के लिये हरी-हरी जी की पूलियाँ पाई हैं, उनमें से एक पुली मुझे लाकर दो, जिसे खाकर मैं अपना दोहला पूर्ण करू।' बकरे ने कहा-'क्या कहती हो, ऐसा करते ही राजकर्मचारी मुझे मार ही डालेंगे।' बकरी ने प्रात्म-हत्या का भय दिखलाया तो बकरा बोला-मैं ब्रह्मदत चक्रवर्ती के समान मूर्ख नहीं है जो अपनी स्त्री के कहने पर प्राण त्याग रहा है।' चक्रवर्ती बकरे की बात सुनकर लौट पाया। एक दिन एक ब्राह्मण भोजन के समय चक्रवर्ती के पास ग्राया। चक्रवर्ती ने उसे भोजन के लिये पूछा। ब्राह्मण बोला यदि आप भोजन कराना ही चाहते हैं तो मुझे प्रापकी आज्ञा शिरोधार्य है, किन्तु जो भोजन मापके लिये बना है, मैं उसी भोजन को खाऊंगा। ब्रह्मदत्त बोला-ब्रह्मन् ! वह आपके लिये दुष्पाच्य और उन्मादकारी होगा। किन्तु ब्राह्मण नहीं माना। ब्रह्म हठ के आगे चक्रवर्ती को प्राह्मण की बात माननी पड़ी। उसने ब्राह्मण और उसके परिवार को अपना भोजन खिलाकर संतृप्त किया। धीरे धीरे उस भोजन ने माना प्रभाव दिखाना प्रारम्भ किया। ब्राह्मण, उसकी पत्नी, पुत्र, पुत्री, भाई, बहन सभी कामान्ध हो गये और परस्पर में प्रकरणीय वृत्य करने लगे। प्रातःकाल होने पर भोजन का प्रभाव कम हमा, तब उन्हें अपने प्रबिवेक पर बड़ी लज्जा पाई। वे एक दूसरे से मुख छिपाते फिरे। किन्तु ब्राह्मण को चक्रवर्ती के ऊपर बड़ा क्रोध आया और अपने लज्जाजनक कुकृत्य का कारण चक्रवर्ती को समझकर वह उसकी हत्या का उपाय सोचने लगा। बन में निरुद्देश्य घुमते हुए उसने देखा कि एक चरवाहा अपनी गुलेल में कंकड़ी रखकर उससे वट वृक्ष के पत्ते गिराकर बकरियों को चरा रहा है । चरवाहे की निशानेबाजी से ब्राह्मण बड़ा प्रभावित हुआ । उसने सोचा कि इसके द्वारा ब्रह्मदत्त से बदला लिया जा सकता है। उसने चरवाहे को धन देकर इस बात के लिये तैयार कर लिया कि जब ब्रह्मदत्त हाथी पर सवार होकर निकले तो गुलेल की गोली से उसकी दोनों प्रांखें फोड़ दी जायें। चरवाहे ने अपने कृत्य का दुष्परिणाम समझे बिना ही नगर में जाकर राजपथ से निकलते हुए गजारूढ़ ब्रह्मादत्त की दोनों प्रांखे गुल से दो गोलियों द्वारा एक साथ फोड़ दीं।' राजपुरुषों ने अविलम्ब चरवाहे को पकड़ लिया। उससे ज्ञात होने पर वह ब्राह्मण और उसका परिवार पकड़ लिया गया। ब्रह्मदत्त के आदेश से उन सबको मौत के घाट उतार दिया गया । ब्रह्मदत्त का क्रोध फिर भी शान्त नहीं हमा, उसने सभी ब्राह्मणों को चन-चन कर मरवा डाला। अन्धा होने पर उसका क्रोध बढ़ता ही गया। उसने अमात्य को प्रादेश दिया कि अगणित ब्राह्मणों की प्रांखें निकलवाकर थाल में रखकर मेरे समक्ष उपस्थित की जायें। अमात्य ने लिसोड़े की अगणित चिकनी गुठलियाँ निकलवा कर थाल' में रखकर ब्रह्मदत्त के समक्ष उपस्थित कर दीं। वह एक क्षण को भी थाल को अपने पास से नहीं हटाता था। इस प्रकार बह्मदत्त ने अपनी प्रायु के मन्तिम सोलह वर्ष प्रति तीन पात और रौद्र ध्यान में बिताये एवं सात सौ वर्ष की आयु पूर्ण होने पर अपनी पट्टमहिषी कुरुमती के नाम का बार-बार उच्चारण करता हुआ दुनि से मरकर सातवें नरक में गया। १--"केश उरण उवाएण पच्छु क्यारो पखरणो कीरई ?" ति झायमाणेण कमो वहहिं अ वयरियग्य विण्णासेहि गुलियापरण विक्वेवरिणउणो वयंसो। कमसमा वाइसयस य साहियो रिशययाहिप्पाओ। तेरणावि पडिकणं सरहसं । --चउय्वप्न महापुरिस परियं पृ० २३ * पालेषु जन्म दिवसोऽप ससा शतेषु, सप्तस्वसौ कुरुमतीत्यसकृदन्न बाणः। हिसामुग्धिपरिणाम फलानुरूपा, तां सप्तमी नरकमोकभुवं जगाम ।। -विशष्टि पताका पुरुष परिव प ६, सगं १, श्लोक १०.

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