Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 341
________________ ३२६६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास एक अपरिचित तेजस्वी युवक को देखकर वह कन्या भयभीत हो गई और पूछने लगी-'आप कौन हैं ? आप यहाँ क्यों आये हैं ?' ब्रह्मदत्त बोला-'मैं पाञ्चाल नरेश ब्रह्म का पुत्र ब्रह्मदत्त हूँ।' सुनकर वह कन्या उसके पैरों में गिर पड़ी-'मैं मापके मामा पुष्पचूल की पुत्री पुष्पवती हैं जिसका वाग्दान आपके साथ हुआ था। मैं आपके साथ विवाह की प्रतीक्षा में थी कि मुझे नाट्योन्मत्त नामक विद्याधर अपहरण करके ले आया। वह निकट ही कहीं झाड़ियों में विद्या साधन कर रहा है। अब मैं पापकी शरण हूँ।' कुमार ने उसे प्राश्वस्त करते हुए कहाअज्ञानवश वह विद्यावर अभी मेरे हाथों मारा गया है । अब मेरे रहते हए तुम्हें कोई भय नहीं करना चाहिये।' दोनों ने गान्धर्व विवाह कर लिया। किन्तु प्रातःकाल होने पर पाकाश-मार्ग से नादयोन्मत्त विद्याधर की दो बहनें-खण्डा और विशाखा को प्राते हुए देखा तो पुष्पवती बोली- 'नाथ ! यदि इन्हें अपने सहोदर की मृत्यु का पता चल गया तो अपने सजातीय विद्याधरों को ले आवेंगी। तब तो अनर्थ ही हो जायगा। प्रतः श्राप यहाँ से भाग जाइये। विषम परिस्थिति देखकर ब्रह्मदत्त वहाँ से छिपकर चल दिया। आगे जाने पर उसने लताकुंज में फूल चुनती हुई एक अपूर्व सुन्दरी को देखा । वह उस रूपराशि को अपलक निहारता रहा । वह सुन्दरी भी उसी की और संकेत करती हुई अपनी सखी से मुस्कराती हुई कुछ कह रही थी। तभी अकस्मात् यह लता गुल्म में अदृश्य हो गई। ब्रह्मदत्त ठगा-सा उधर ही देखता रहा। तभी उसे नपुर की झंकार सुनाई पड़ी। वह सखी ताम्बूल, वस्त्र और आभूषण लिये उसके पास आई पीर बोली-आपने अभी जिन्हें देखा था, उन राजकुमारी जी ने आपके लिये ये बस्तुएँ भेजी हैं तथा मापको मन्त्री जी के घर पहुंचाने की याज्ञा दी है।' वह उस स्त्री के साथ चल दिया। मन्त्री निवास पहुँचने पर उसका जोरदार मातिथ्य किया गया। राजा ने अपनी पुत्री श्रीकान्ता का विवाह बड़े समारोहपूर्वक उसके साथ कर दिया । वह कुछ दिन वहाँ मानन्दपूर्वक रहा। श्रीकान्ता का पिता वसन्तपुर का राजा था । गुह-कलह के कारण वह भागकर चौर-पल्ली का राजा बन गया और लूट मार करके निर्वाह करने लगा। एक दिन एक गांव को लूटते हुए वरधनु भी हाथ आ गया । इस प्रकार चिरकाल के पश्चात् ब्रह्मदत्त और वरधनु दोनों का मिलन हुआ। तभी उन्हें दीर्घराज के सैनिकों के आने का समाचार मिला। वे दोनों वहाँ से भागे और कौशाम्बो जा पहुँचे । वहाँ दीर्घराज के अनुरोध पर कौशाम्बी नरेश ब्रह्मदत्त और वरधनु की खोज करवा रहा था। वे वहां से बचकर भागे और राजगृह पहुंचे। वहाँ नाट्योन्मत्त विद्याघर की दोनों बहनों-खण्डा और विशाखा तथा वहाँ के धनकुबेर धनावह सेठ की भतीजी रत्नवती के साथ ब्रह्मदत्त का विवाह हुमा। वे सुखपूर्वक वहाँ रहने लगे। एक दिन दोनों मित्र वासन्ती परिधान धारण करके वसन्तोत्सव देखने गये। तभी राजा का हाथी बन्धन तडाकर उत्सब में प्रागया और उत्पात करने लगा। ब्रह्मदत्त ने उसे त्रीडामात्र में वश में कर लिया और गजशाला में पहुंचा दिया। मगध नरेश ने प्रसन्न होकर उसके साथ अपनी पुत्री पुण्यमानी का विवाह कर दिया। यहां उसके साथ बंधवण श्रेष्ठी की पुत्री श्रीमती और मन्त्री-सुता नन्दा का भी विवाह हुआ। फिर दोनों मित्र युद्ध की तैयारी के लिये बाराणसी पहुँचे। वाराणसी नरेश ने अपने मित्र ब्रह्म के पुत्र ब्रह्मदत्त के प्रागमन का समाचार सुनकर उसका बड़ा सत्कार किया। उसने अपनी कन्या कटकवती का विवाह उसके साथ कर दिया और दहेज में उसे चतरंगिणी सेना भी दी। ब्रह्मदत्त के वाराणसी पागमन का समाचार सुनकर हस्तिनापुर नरेश कणेरुदत्त, चम्पा नरेश पुष्पचलक, प्रधानामात्य धन और भगदत्त आदि अनेक नरेश सेना लेकर वहां आगरे । ब्रह्मदत्त ने सभी सेनामों को सूगठित करके वरधन को सेनापति पद पर नियुक्त किया और दीर्घ पर माक्रमण करने के लिये काम्पिल्यपुर की ओर प्रयाण किया। दीर्घ भी सेना लेकर रणक्षेत्र में प्रागया। दोनों सेनाओं में भाषण युद्ध हुमा । ब्रह्मदत्त और दीर्घ आपस में जूझ गये । दोनों अतुल पराक्रमी थे। दोनों ही वीर अजेय थे। उनका ऐसा भयानक यद्ध हया कि दोनों सेनायें भी परस्पर यद छोडकर यह द्वन्द-यद्ध देखने लगीं। तभी अपनी प्रभा से सबका चकाचाध करता हुआ चक्ररत्न प्रगट हया और ब्रह्मदत्त की तीन प्रदक्षिणा देकर उसको दांये हाथ की तर्जनी पर स्थित हो गया। ब्रह्मदत्त ने धुमाकर उसे दीर्घ की अोर फका । चक्र अपनी किरणों से स्फुलिग बरसाता हुमा दीर्घ की पोर

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