Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 342
________________ ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती चला और क्षणभर में दीर्घ का मस्तक काटकर वापिस लौट पाया। ब्रह्मदत्त की जयघोषों से आकाश गंजने लगा। ब्रह्मदत्त ने बड़े समारोह के साथ काम्पिल्यपुर में प्रवेश किया। चलनी भयभीत होकर प्रवजित होकर चली गई। राजानों और प्रजा ने समारोह के साथ ब्रह्मदत्त का राज्याभिषेक किया। इस प्रकार निरन्तर सोलह वर्ष तक अनेक संकटों और संघर्षों का सामना करता हुआ ब्रह्मदत्त अपने पैतृक राज्य का अधिकारी हुमा। वह छप्पन वर्ष तक माण्डलिक राजा के रूप में राज्य करता रहा। फिर वह विशाल सेना लेकर दिग्विजय के लिये निकला और सोलह वर्ष में सम्पूर्ण भरत क्षेत्र को विजय करके वह काम्पिल्यपुर लौटा। वह चौदह रत्नों, ननिधियों और चक्रवर्ती की सम्पूर्ण समृद्धियों का स्वामी बन गया। वह अपनी ऋद्धियों और राज्यधी का भोग करने लगा। भरत क्षेत्र के छह खण्डों के राजा उसके सेवक के समान उसकी सेवा करने में अपना सौभाग्य मानते थे। एक दिन एक यवनेश्वर ने उसे एक सुन्दर अश्व भेंट किया। वह अश्व की परीक्षा करने अश्व पर सवार हो भ्रमण करने निकला। चाबुक पड़ते ही घोड़ा वायु-वेग से भागा और अनेक बन-उपवनों और पर्वतों को लांघता हुया वह एक सघन वन में रुका। उस वन में एक सरोवर के तट पर एक सुन्दर नागकन्या को किसी जार के साथ संभोग करते हए देखा 1 वह दुराचार का घोर विरोधी था। इस प्रनाचार को देखकर वह क्रोध से तिलमिला उठा। उसने चाबुक से उस जार और नागपत्नी को बुरी तरह पीटकर कठोर दण्ड दिया। तब तक उसके अंगरक्षक उसे खोजते हए या पहुँचे । चक्रवर्ती उनके साथ काम्पिल्यपुर लौट पाया। उधर उस नागपत्नी ने अपना क्षत-विक्षत शरीर अपने पति नागराज को दिखाते हुए और करुण रुदन करते हए कहा-'नाथ ! मैं अाज अापके पुण्य प्रताप से जीवित वापिस लौट सकी हूँ। मैं अपनी सखियों के साथ वन-विहार के लिये गई थी। उसी धन में ब्रह्मदत्त आ गया। उस कामुक ने मुझ पर पासक्त होकर कुचेष्टायें करना प्रारम्भ कर दिया। मैंने प्रतिरोध किया तो उसने मुझे चाबुक से इतना पीटा कि मैं मूछित हो गई। मैंने आपका नाम लेकर कहा कि मैं नागराज की पतिव्रता पत्नी हूँ, किन्तु चक्रवर्ती-पद के अभिमान में उसने आपकी भी पर्वाह नहीं की। न जाने कौन से पुण्य थे जो मैं आपके दर्शन कर सकी।' यह सुनते ही नागराज अत्यन्त कुपित होकर चक्रवर्ती का वध करने चल दिया और किसी प्रकार प्रहरियों की निगाह बचाकर उसके शयनागार में जा पहुंचा। रात्रि का समय था। ब्रह्मदत्त पलंग पर लेटा हुआ था। उस समय पट्टमहिषी ने पूछा-प्राणनाथ ! आज पाप अश्व पर प्रारूढ़ होकर अनेक वनों में धूम आये 1 क्या मापने बहर्जा कोई पाश्चर्यजनक घटना भी देखी।' चक्रवर्ती ने एक जार के साथ नागकन्या के दुश्चरित्र की घटना सनाते हो चाबक द्वारा दोनों की पिटाई की बात बताई। नागराज उनकी बातें सुन रहा था। सत्य घटना सुनकर उसकी प्रांखें खुल गई। उसको सत्य का पता चल गया । वह शयन-कक्ष से बाहर निकला और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया । चक्रवर्ती ने प्रश्नसूचक दष्टि से उसे देखा। वह बड़ी विनय से बोला-'स्वामिन् ! आज आपने जिस दुराचारिणी स्त्री को पीटा था, मैं उसका पति हूं। उसने आपके विरुद्ध असत्य मारोप लगाया, उससे क्रुद्ध होकर मैं आपकी हत्या करने के लिये यहाँ प्राया था। किन्त अापके मुख से तथ्य सुनकर मेरा हृदय आपके प्रति श्रद्धा से पूरित हो गया है। आप प्रादेश दीजिये कि मैं प्रापकी क्या सेवा कर सकता हूँ? - ब्रह्मदत्त वोला-'नागराज ! मेरी इच्छा है, मेरे राज्य में दुराचार, अनाचार, ईति-भीति बिलकुल न नागराज बोला-'राजन् ! ऐसा ही होगा । किन्तु मैं पापका कुछ हित करना चाहता हैं।' चक्रवर्ती बोला-'नागराज ! मैं चाहता हूँ कि मैं प्राणीमात्र की भाषा समझ सक।' नागराज बोला-'भरतेश ! मैं प्राप पर बहुत प्रसन्न हूँ। मैं यह विद्या आपको देता हूँ किन्तु यह ध्यान रखिये कि यदि आपने इस रहस्य को किसी पर प्रगट कर दिया तो पापका सिर खण्ड-खण्ड हो जायगा।' चक्रवर्ती ने आश्वासन दे दिया। नागराज प्रसन्न मुद्रा में प्रभिवादन करके वहां से चला गया।

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