Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 339
________________ ३२४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास तेरी हत्या करूँगा। तेरी रक्षा का केवल एक हो उपाय है। यदि त भूमि पर णमोकार मंत्र लिखकर पैर से उसे पोंछ दे तो तेरा जीवन बच सकता है, अन्यथा नहीं। चक्रवर्टी अपने प्राणों के माह से विवेक खो बैठा। उसने देव के कृयतानुसार भूमि पर णमोकार मंत्र लिखा और उसे पैर से मिटा दिया। ऐसा करते ही देवता ने उसे यमधाम पहुँचा दिया । ब्रह्मदत्त मरकर सप्तम नरक में उत्पन्न हुआ। श्वेताम्बर परपरा में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती-श्वेताम्बर साहित्य में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का जीवन परिचय अत्यन्त विस्तृन्त्र रूप में मिलता है। उसका जीवन अत्यन्त घटनापूर्ण रहा था । उसका जीवन वृत्तान्त संक्षेप में इस प्रकार गुम्फित किया गया है काम्पल्यपुर के नरेश ब्रह्म की महारानी चलनी ने चौदह स्वप्न देखे । नौ महीने पूर्ण होने पर उसके एक पुत्र हुमा जो तप्त कांचन के समान वर्ण वाला था। पिता को बालक का मुख देखते ही ब्रह्म में रमण करने के समान प्रानन्दानुभूति हुई, इसलिये उसका नाम ब्रह्मदत्त रक्खा गया। काशी नरेश कटक, हस्तिनापुर नरेश कणेरुदत्त, कोशलपति दीर्घ और चम्पानरेश पुष्पचूलक काम्पिल्य नरेश के अन्तरंग मित्र थे। उनमें इतनी घनिष्टता थी कि वे पांचों एक-एक राजधानी में क्रमशः एक वर्ष तक साथसाथ ही रहते थे। उस वर्ष काम्पिल्यपुर की बारी थी, प्रतः पांचों वहाँ रहने लगे। एक दिन काम्पिल्य नरेश का देहान्त हो गया । तब चारों मित्रों ने परामर्ष करके अपने दिवंगत मित्र के राज्य की रक्षा करने का निश्चय किया और जब तक ब्रह्मदत्त राज्य-भार संभालने में सक्षम न हो जाय, तबतक एक-एक वर्ष के लिये क्रमश: एक नरेश काम्पिल्यपुर में रहकर ब्रह्मदत्त और राज्य का संरक्षक बनकर रहे, यह निश्चित हुया । उस समय ब्रह्मदत्त की घायु बारह वर्ष की थी। इस निर्णय के अनुसार प्रथम वर्ष के लिये कोशल नरेश दीर्घ को यह दायित्व सौंपा गया। दीर्घ वहीं पाकर रहने लगा। किन्तु दार्थ अत्यन्त विश्वासघातो निकला। उसने न केवल राज्य के कोष और राज्य पर ही अपना अधिकार कर लिया, अपितु उसने अपने स्वर्गीय मित्र की रानी चुलना को भी अपने प्रेमपाश में जकड़ लिया। दीर्घ और चुलना की प्रेम लोलाय प्रवाध गति से चलने लगी। प्रधानामात्य धनु से यह प्रणय-व्यापार छिपा नहीं रह सका । उस राज्यनिष्ठ व्यक्ति को चिन्ता हई कि ये कामान्ध कहीं बालक ब्रह्मदत्त का अनिष्ट न कर दें। अतः उसने अपने पुत्र वरधनु के द्वारा राजकुमार को सतर्क रहने का परामर्ष भिजवा दिया तथा अपने पुत्र को सदा राजकुमार के साथ रहने की प्राज्ञा दे दी। अब बालक ब्रह्मदत्त को सारी परिस्थिति ज्ञात हो गई। उसने राजा को सावधान करने के लिये एक उपाय किया । वह एक पिजड़े में काक और कोयल को लेकर दीर्घ और चुलना के केलिगृह के द्वार पर जाकर क्रोध में तीन स्वर में कहने लगा--'भरे नीच कौए ! तेरी इतनी धृष्टता कि इस कोकिल के साथ तू केलि-क्रीड़ा कर रहा है। तुम दोनों को मैं अभी यमलोक पहुंचाता हूँ।' ब्रह्मदत्त की यह अन्योक्ति सुनकर दीर्घ चुलना से बोला-'प्रिये ! सुना तुमने ब्रह्मदत्त हम दोनों को काक और कोकिल बताकर हमारा वध करना चाहता है। चुलना ने इस बात को यह कह कर उड़ा दिया कि वह अभी बालक है। किन्तु ब्रह्मदत्त ने उन्हें समझाने के लिये इसी प्रकार के कई उपाय किये। इससे भयभीत होकर दीर्घ बोला--"प्रिये ! बालक समझकर याही टालना ठीक नहीं है। बड़ा होने पर यह हमारा शत्रु बन जायगा। हम और तुम जीवित रहे तो पुत्र तो और भी हो जायगे। किन्तु इस कण्टक को दूर करने में ही हम दोनों का हित है।" कामान्ध चुलना भी इससे सहमत हो गई। उन्होंने निश्चय किया कि यथाशीघ्न ब्रह्मदत्त का विवाह करके सुहागराषिको वर-वधू को लाक्षागृह में सुलाकर समाप्त कर दिया जाय । ब्रह्मदत्त के लिये उसके मातुल पुष्पचूल नरेश की पुत्री पुष्पवती का वाग्दान हो गया। विवाह की जोर शोर से तैयारियां होने लगी। उपर प्रधानामात्य धनु भी प्रसावधान नहीं था। घरों द्वारा उसे दीर्घ की योजना का पता चल गया। उसने एक दिन दीर्ष के निकट जाकर अंजलिवद्ध होकर यज्ञ करने की अनुमति मांगी। दीर्घ ने उसे अनुमति दे दी। प्रधानामात्य ने गंगा-तट पर विशाल यज्ञ-मण्डप की रचना कराई और अन्न-दान यज्ञ करना प्रारम्म कर दिया। सहस्रों लोग प्रतिदिन वहाँ भाकर मन्न प्राप्त करने लगे। किन्तु इस घूमधाम के बीच

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