Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 337
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास मि० वर्गस, मि. टाड यादि को गिरनार पर्वत पर कुछ शिलालेख सं० ११२३, १२१२,१२२२ के मिले हैं. जिनमें श्रावकों द्वारा सीढ़ियां बनाने का उल्लेख है। संवत १२१५ के एक शिलालेख में राज सावदे द्वारा ठा० सालवाहण ने देवकुलिकायें बनवाई, ऐसा उल्लेख है। संवत् १२१५ के शिलालेख के अनुसार प्राचीन मन्दिरों के स्थान पर नवीन मन्दिरों का निर्माण कराया गया। मि० वर्गस की रिपोर्ट में बताया है कि मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के राष्ट्रीय वैश्य पुष्पगुप्त ने गिरनार पर 'सुदर्शना' नामक झील बनवाई थी और महाक्षत्रप रुद्रदामा ने उस झील का सेतु बनवाया था जो नदियों की बाढ़ से टूट गया था। वर्तमान में गिरनार पर्वत की तलहटी में दिगम्बर और श्वेताम्बर जनों की धर्मशालायें बनी हुई हैं जो सड़क के दोनों पोर आमने-सामने हैं। दिगम्बर धर्मशाला के अन्दर तीन मन्दिर बने हुए हैं। यहाँ हिन्दुनों के मन्दिर और गर्गशालय भी हैं। दिशाबर धर्मशाला में लगभम सौ कदम चलकर चढ़ने का द्वार मिलता है। लगभग ३००० सीढ़ियां चढ़ने पर पहला शिखर आता है। यहाँ 'राखङ्गार' का ध्वस्त कोट और महल हैं। दिगम्बर और श्वेताम्बरों की एक-एक धर्मशाला है। कोट के अन्दर जानेक जैन मन्दिर हैं, जिन पर श्वेताम्बरों का अधिकार है। प्रागे चलने पर एक पर्वत शिला में पद्मावती देवी और उसके शीर्ष पर पार्श्वनाथ की मूर्ति है । फिर राजीमती की गुफा है । इसमें पाषाण में राजीमती की मूर्ति बनी हुई है। प्रागे बढ़ने पर एक परकोटे में तीन दिगम्बर जैन मन्दिर हैं। यागे दाई पोर चौमुखी मन्दिर तथा रथनेमिका एक श्वेताम्बर मन्दिर है। कुछ ऊपर चढ़ने पर प्रम्बा देवी का मन्दिर है। इस पर प्रब हिन्दुनों का अधिकार है। इसके बगल में प्रनिरुद्धकूमार के घरण हैं । यह दूसरा शिखर है । यहाँ से कुछ ऊँचाई पर तीसरा शिखर है। इस पर शम्बकुमार के.चरण हैं। यहाँ हिन्दुओं का गोरक्षनाथ का मन्दिर है। यहाँ से लगभग ४००० फुट उतर कर चौथा शिखर है। इस पर प्रद्यम्नकुमार के चरण हैं। यहाँ एक काले पाषाण पर नेमिनाथ की मूति तथा दूसरी शिला पर चरण हैं। इस शिखर पर सीढ़ियां न होने से चढ़ाई कठिन है। तीसरे शिखर से पांचवें शिखर को सीठियां जाती हैं। पांचवें शिखर पर एक मठिया में नेमिनाथ भगवान के चरण हैं और एक पद्मासन दिगम्बर प्रतिमा बनी हुई है। इन चरणों को हिन्दू लोग दत्तात्रय के चरण मानकर पूजते हैं। चरणों के पास ही एक बड़ा भारी घण्टा बंधा हुआ है। इसकी देखभाल एक नागा साधु करता है। इस टोंक से उतरने पर रेणका शिखर, फिर कालिका की टोंक पाती है। कोई जैन इन पर नहीं जाता। लौटते हुए दूसरी टोंक के चौराहे से उत्तर की ओर गोमुखी कुण्ड के पास से सहसा वन के लिये मार्ग जाता है। इसके लिये पहले शिखर से सीढ़ियों गई हैं। गोमुखी कण्ड में चौबीस तीर्थकरों के चरण एक शिलाफलक पर बने हुए हैं। सहसावन में भगवान नेमिनाथ के दीक्षा कल्याणक और केवल ज्ञानकल्याणक की द्योतक देवकुलिकामों में चरण बने हए हैं। यहाँ भगवान के दो कल्याणक हुए थे । ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती बारहवां और अन्तिम चक्रवर्ती था, जिसने भरत क्षेत्र की षट्-खण्ड पृथ्वी को जीता था। वह बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ और तेईसवें तीर्थकर पार्वनाथ के मध्यवर्ती काल में नेमिनाथ के तीर्घ में उत्पन्न हना था। इसके सम्बन्ध में दिगम्बर जैन साहित्य में बहुत ही कम परिचय मिलता है। प्राचार्य गुणभद्र कृत 'उत्तर पराण' में तो केवल इतना ही परिचय दिया गया है कि 'वह ब्रह्मा नामक राजा और चूड़ादेवी रानी का पुत्र था। उसका शरीर सात धनुष ऊँचा था और उसकी पायु सात सौ वर्ष की थी । वह सब चक्रवतियों में अन्तिम चक्रवर्ती था।' हरिषेण कृत 'कथाकोष' में इसके पूर्व भव और उसकी जीवन सम्बन्धी एक घटना के अतिरिक्त उसकी मत्यु का वर्णन मिलता है। वह इस प्रकार है 'काशी जनपद में वाराणसी नगरी थी। उसमें सुषेण नामक एक निर्धन कृषक रहता था। इसकी स्त्री का

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