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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
जिस स्थान पर भगवान को निर्वाण प्राप्त हुआ था, वहाँ इन्द्र ने वज्र से सिद्धशिला का निर्माण करके उसमें भगवान के चिन्ह अंकित कर दिये थे । इन्द्र ने वहां यन्त्र से अत्यन्त शान्त और आयुध एवं वस्त्राभूषणों से रहित दिगम्बर नेमिनाथ की मूर्ति की भी स्थापना की थी। यह मूर्ति यतिपति मदनकीर्ति के समय में (वि० सं० १२८५ के लगभग) विद्यमान थी। कहते हैं, यह लेपमूर्ति थी। काश्मीर का रत्न नामक एक श्रीमन्त जन गिरनार की वन्दना के लिए आया। उसने इस मूर्ति का जलाभिषेक किया, जिससे मूर्ति गल गई तब उसे बड़ा दुःख हुआ । उसने उपवास किया । रात्रि में अम्बिका देवी प्रगट हुई। उसकी आज्ञानुसार रत्न ने १८ रत्नों की, १८ स्वर्ण को, १८ चांदी की और १८ पाषाण की प्रतिमायें प्रतिष्ठित की । रत्नों की प्रतिमाओं को वह अपने साथ लेता गया । "
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इससे प्रतीत होता है कि इन्द्र द्वारा प्रतिष्ठित नेमिनाथ मूर्ति थी अवश्य, किन्तु वह वाद में खण्डित होगई । गिरनार की श्रम्विकादेवी का असाधारण महत्त्व बताया जाता है । दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराम्रों में ऐसी किम्बदन्तियां प्रचलित हैं कि दिगम्बर और श्वेताम्बर यात्रा संघ गिरनार की वन्दना को गये । पर्वत पर पहले कौन जाय, इस बात को लेकर दोनों में विवाद हो पड़ा। एक महीने तक बाद चला। अन्त में दोनों पक्षों ने अम्बिकाको मध्यस्थ चुना। अम्बिका की देव वाणी हुई, जिसके अनुसार दोनों की मान्यता है कि उनके पंथ को देवी ने सत्य पंथ घोषित किया । इन किम्वदन्तियों में कितना सार है, यह नहीं कहा जा सकता ।
चतुर्थ श्रुतकेवली गोवर्धन स्वामी गिरनार की बन्दना के लिए आये थे । प्राचार्य भद्रवाहु ने भी इस निर्वाण तीर्थ की बन्दना की थी।
'श्रुतस्कन्ध" और 'श्रुतावतार" के अनुसार श्राचारांग के धारी धरसेनाचार्य गिरनार की चन्द्र गुफा में रहते थे। अपनी आयु का अन्त निकट जानकर उन्होंने दक्षिणा पथ की महिमानगरी में एकत्रित मुनि संघ को दो व्युत्पन्न मुनि श्रुताध्ययन के लिये भेजने को लिखा मुनि संघ ने पुष्पदन्त और भूतवलि नामक दो विद्वान् मुनियों को घरसेनाचार्य के पास भेजा। धरसेनाचार्य ने उन मुनियों को दो मन्त्र सिद्ध करने के लिये दिये। एक मन्त्र में हीनाक्षर था और दूसरे मन्त्र में अधिक अक्षर था। उन्होंने दोनों मुनियों को गिरनार की सिद्ध शिला पर - जहाँ . भगवान नेमिनाथ का निर्माण कल्याणक हुआ था - मन्त्र साधन की याज्ञा दी। दोनों योग्य शिष्यों ने तीन दिन तक मन्त्र साधन किया। उन्हें देवी सिद्ध हुई, किन्तु एक देवी काणाक्षी थी और दूसरी दन्तुल थी। दोनों ने विचार करके मन्त्रों को शुद्ध किया पौर पुनः साधन किया। इस वार देवियाँ सौम्य आकार में ग्राकर उपस्थित हुई। दोनों मुनियों ने गुरु के निकट जाकर यह निवेदन किया। गुरु ने उन्हें सुयोग्य जानकर अंगज्ञान का बोध दिया। अध्ययन करके वे वहाँ से गुरु की प्राज्ञा से चले गये और उन्होंने षट्खण्डागम की रचना की तथा लिपिवद्ध करके सम्पूर्ण संध के समक्ष ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को उस शास्त्र की ससमारोह पूजा की ।
ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं कि आचार्य कुन्दकुन्द गिरनार की वन्दना के लिये आए थे । नन्दि संघ की गुर्वावली में उल्लेख है कि पद्मनन्दी मुनि ने गिरनार पर्वत पर स्थित सरस्वती देवी से यह घोषणा कराई थी कि 'सत्य पन्थ निर्ग्रन्थ दिगम्बर इसी घटना के कारण सरस्वती गच्छ की उत्पत्ति हुई। बीरसेनाचार्य गिरनार की
१. आचार्य समन्तभद्रकृत स्वयम्भू स्तोत्र श्लोक १२७ – २८ । आचार्य दामनन्दी कृत पुराण सार संग्रह ५ । १३६ २. मदनकीति विरचित शासन चतुस्त्रिंशिका श्लोक २०
३. श्वेताम्बराचार्य राजशेखरसूरिकृत 'प्रबंध कोष' का रत्न श्रावक प्रबंध रचना वि० सं० १४०५
४. वृहत्कथा कोष पृ० ३१०
५. श्रुतस्कन्ध, पृ० १६५
६. श्रुतावतार कथा, श्लोक १०३-६
७. 'ज्ञान प्रबोध' एवं पाण्डव पुराख
८. पद्मनन्दी गुरुजतो बलात्कारगणाग्रणी ।
पाषाणघटिता येन वादिता श्री सरस्वती ||३६|| जयन्त गिरौ तेन गच्छः सारस्वतो भवेत् । अतस्तस्मै मुनीन्द्राय नमः श्री पद्मनन्दिने ॥ ३७ ॥