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षष्ठ परिच्छेद
भगवान सुमतिनाथ
सीतानदी के उत्तर तट पर रतिषेण नाम का राजा राज्य
धातकी खण्ड द्वीप में पूर्व मेरु पर्वत से पूर्व की प्रोर स्थित विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती नामक एक देश था। उसमें पुण्डरीकिणी नाम की एक नगरी थी, जिसमें करता था । उसने खूब धन अर्जित किया और खूब धर्म करता था। एक दिन उसने विचार पूर्व भव किया— अर्थ और काम से तो सुख मिल नहीं सकता। सुख केवल धर्म से ही प्राप्त हो सकता है । अतः उसने अपने पुत्र प्रतिरथ को राज्य सौंपकर मुनि दीक्षा लेली और भगवान अभिनन्दन के चरण मूल में उसने ग्यारह ग्रंगों का ज्ञान प्राप्त किया तथा सोलह कारण भावनाओं का निरन्तर चिन्तन श्री व्यवहार करने से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया। आयु के अन्त में समाधिमरण करके वैजयन्त विमान में वह अहमिन्द्र बना ।
अयोध्या नगरी के राजा का नाम मेघरथ' था। वह भगवान ऋषभदेव के वंश और गोत्र का था। उसकी पटरानी मंगला थी । भगवान के गर्भावतार से छह माह पहले से उनके प्रासाद में रत्नवर्षा हुई जो पन्द्रह माह तक
होती रही। एक दिन रानी ने श्रावण शुक्ला द्वितीया को मघा नक्षत्र में रात्रि के ग्रन्तिम प्रहर गर्भ कल्याणक में सोलह स्वप्न देखे । तदनन्तर उन्होंने अपने मुख में एक विशालकाय हाथी प्रवेश करते हुए देखा । महाराज ने महारानी के मुख से स्वप्नों की बात सुनकर हर्षपूर्वक कहा -देवि ! तुम्हारी कुक्षि में तीर्थंकर प्रभु ने अवतार लिया है। स्वप्न का फल सुनकर महारानी को बड़ी प्रसन्नता हुई। वह अहमिन्द्र ही उनके गर्भ में आया था ।
नौ माह पूर्ण होने पर चैत्र शुक्ला एकादशी को मघा नक्षत्र में महारानी मंगला ने तीन ज्ञान के धारी त्रिभुपति को जन्म दिया। चारों निकाय के देव और इन्द्र वहाँ पाये। उन्होंने भगवान के दर्शन करके अपना जन्म सफल माना । वे बालक प्रभु को ऐरावत हाथी पर विराजमान करके सुमेरु पर्वत पर ले गये । वहाँ उन्होंने पाण्डुक शिला पर विराजमान करके क्षीर सागर के जल से भगवान का अभिषेक किया । इन्द्र ने भगवान की भक्ति करके उनका नाम सुमतिनाथ रखा । चक्रवाक पक्षी इनका
जन्म कल्याणक
चिन्ह था ।
भगवान धीरे-धीरे दूज के चन्द्रमा की भाँति बढ़ने लगे । वे रूप में कामदेव को लज्जित करते थे। इस प्रकार क्रमशः वे यौवन अवस्था को प्राप्त हुए। पिता मेघरथ ने थात्मकल्याण के लिये अपने त्रिलोक के गुरु पुत्र को राज्य देकर मुनि दीक्षा ले ली। भगवान ने न्यायपूर्वक राज्य चलाया। अनेक स्त्रियों के साथ सांसारिक भोग भोगे । वे इन्द्र द्वारा भेजे गये प्रशन वसन आदि का भोग करते थे। इस प्रकार राज्य भोग करते हुए बहुत समय बीत गया ।
एक दिन भगवान बैठे हुए चिन्तन में लीन थे। उन्होंने अपने पूर्व जन्मों का स्मरण किया --- मैं पूर्वजन्म में
१. तिलोयपत्ती के अनुसार मेवप्रभ नाम था ।