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हरिवंश की उत्पत्ति
प्रत्यन्त हर्षित होकर बोले---'प्रिये ! तुम्हारे ऐसा पुत्र होगा जो अत्यन्त धीर, वीर, अजेय, पृथ्वी का स्वामी और प्रजाबल्लभ होगा' । स्वप्नों का फल जानकर देबी रोहिणी भी बहुत सन्तुष्ट हुई। महाशुक्र स्वर्ग से च्युत होकर एक महासामानिक देव रोहिणी के गर्भ में पाया।
नौ माह पूर्ण होने पर शुभ नक्षत्र में पुत्र-जन्म हुआ। राजा रुधिर ने दौहित्र का धूम-धाम से जन्मोत्सव मनाया और बालक का नाम 'राम' रखा।
एक दिन राज-मण्डप में सब लोग बैठे हुए थे। एक विद्याधरी आकाश मार्ग से माडर में आई और पाकर वसुदेव से बोली--'देव ! मापकी पत्नी वेगवती और हमारी पुत्री बालचन्द्रा आपके चरणों के दर्शनों के लिए व्याकुलता से प्रतीक्षा कर रही हैं । पुत्री बालचन्द्रा ने आपको अपने मन में वरण कर लिया है। इसलिए उसके साथ विवाह करके उसके गानों की रक्षा नीजिए : निलावरी दे पचन सुनकर व्यवहारज्ञ वसुदेव ने अपने अग्रज समुद्र विजय की प्रोर देखा । समुद्रविजय बोले-'वत्स ! तुम्हें वहाँ अवश्य जाना चाहिये। वसुदेव भ्राता की आज्ञा मिलने पर गगनवल्लभपुर गये और अपनी प्रिया वेगवती से मिले तथा बालवन्द्रा के साथ विवाह किया। इधर जरासन्ध और समुद्रविजय प्रादि नरेश भी अपने-अपने नगरों को लौट गये । राजा रुधिर ने सबका यथोचित सत्कार कर उन्हें विदा किया। कुमार वसुदेव भी गगनवल्लभपुर से अपनी दोनों स्त्रियों को लेकर और विभिन्न नगरों से अपनी सभी पत्नियों को लेकर शौर्यपुर पहुँच गये । राजा और जनता ने चिर वियोग के पश्चात् कुमार को पाकर बड़ा हर्षोत्सव मनाया और उनका अभिनन्दन किया।
कंस का जन्म मौर बसवेव द्वारा बचन-बान-बसुदेव भाइयों के आग्रह को मानकर शौर्यपुर में रहने लगे और राजकुमारों को शस्त्र-विद्या सिखाने लगे। उनके शिष्यों में कंस नामक एक कुमार भी था। एक दिन वसूदेव अपने कंस मादि शिष्यों के साथ सम्राट जरासन्ध से मिलने राजगह गये। वहाँ पहुँच कर उन्होंने एक राजकीय घोषणा सूनी-'जो व्यक्ति सिंहपुर के स्वामी सिंहरथ को जीवित पकड़कर सम्राट् के समक्ष उपस्थित करेगा, सम्राट उसका बड़ा सम्मान करेंगे, अपनी अद्वितीय सुन्दरी पुत्री जीवद्यशा का विवाह उसके साथ करेंगे और उसे इच्छित देश का राज्य देंगे।'
वसुदेव ने भी यह राज-घोषणा सुनी । उन्होंने कंस से प्रेरणा करके पताका उठवाई, जिसका अर्थ था कि वह सम्राट के इस कार्य को करने के लिए तैयार है और सेना लेकर सिंहरथ से लड़ने के लिए चल दिये। सिंहपुर के बाहर मैदान में दोनों प्रोर की सेनायें आ डटीं। सिंहरथ केवल नाम से ही सिंहरथ नहीं या, उसके रथ में वास्तव में जीवित सिंह जूते हये थे। वसुदेव ने क्रीड़ा मात्र में अपने वाणों द्वारा सिंहों की रास काट दी। सिंह स्वतन्त्र होकर भाग गये। उसी समय बड़ी फुर्ती से वसुदेव की आज्ञा से कंस ने सहरथ को बांध लिया । वसुदेव अपने शिष्य के इस शौर्य और फुती को देखकर बड़े प्रसन्न हुये। उन्होंने प्रसन्न होकर कंस से कोई बरदान मागने के लिए कहा। कंस बड़ा चालाक था। वह विनयपूर्वक बोला -'देव ! अभी वरदान को मेरी धरोहर समझकर अपने पास ही रखिये । मुझे जब मावश्यकता होगी, मैं आपसे मांग लगा।' वसुदेव ने भी उससे कह दिया-'तथास्तु ।'
बसूदेव और कस शत्रुको लेकर राजगह पहुचे और जरासन्ध से मिले । जरासन्ध वसूदेव की वोरता पर प्रसन्न होकर बोला-'कूमार ! जोवद्यशा पुत्रो का मैं तुम्हें अपित करता है। किन्तु कुमार ने उसे बाब में ही टोक कर बड़ी विनय के साथ कहा-'माय ! शत्र को कस ने पकड़ा है, मैंन नहीं। तब जरासन्ध ने कंस से उसका कूल, गोत्र पूछा । कंस बोला-मेरी माता मंजोदरी कौशाम्बी में रहती है और मदिरा बनाने का काम करता है। जरासन्ध कंस के रूप और शौर्य को देखकर विचार करने लगा 'यह वीर युवक मदिरा बनाने वाली का पुत्र नहीं हो सकता।' उसने तत्काल कुछ सैनिक कौशाम्बी भेजकर वहाँ से मजोदरी को बुलवा लिया। सम्राट ने उससे कस के कुल, गोत्र का सत्य समाचार बताने की आज्ञा दो । मजोदरी बोली-एक दिन मैं यमुना तट पर गई हुई थी । वहाँ मैंने एक मंजूषा बहती देखी। उसे मैंने निकाल लिया। उसमें एक शिशु का देखकर मुझे दया प्राई और उसे निकाल कर मैं पालने लगी। जब यह किशोर अवस्था में पहचा तो इसको उद्दण्डता बढ़ने लगी। साथी बालकों को यह मारता-पीटता था। इससे नित्य ही उलाहने और शिकायतें भाने लगीं। तब दुःखित हाकर मैंने इसे घर से निकाल दिया। ज्ञात हुमा कि यह कहों शस्त्र-विद्या सोखने लगा । काँस को मंजुषा में निकला था, इसलिए इसका नाम कंस