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नारायण कृष्ण
सामना करना चाहेगा तो हम लोग दण्डनीति का श्राश्रय करके उसे मृत्युलोक में पहुंचा देंगे। तीर्थंकर नेमिनाथ, नीति विचक्षण कृष्ण और महाबली बलराम के रहते हम लोगों को चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है ।
निर्णय हो गया कि यादवों को अविलम्ब प्रस्थान करना है । कटक में आदेश प्रचारित कर दिया गया । भेरी-घोष सुनकर वृष्णिवंश और भोजवंश के समस्त यादव शुभ मुहूर्त में वहाँ से चल पड़े। मथुरा, शौर्यपुर और वीर्यपुर की समस्त प्रजा भी स्वामी के अनुराग से उनकी अनुगत हुई। उस समय अपरिमित वन से युक्त प्रठारह कोटि यादवों ने वहाँ से प्रस्थान किया ।
यादव थोड़ी-थोड़ी दूर पर पड़ाव डालते हुए पश्चिम दिशा की ओर बढ़ रहे थे। जब वे विन्ध्याचल पर पहुंचे तो चरों द्वारा उन्हें समाचार प्राप्त हुआ कि मार्ग में जरासन्ध विशाल सेना लेकर शीघ्रता पूर्वक पीछे-पीछे आ रहा है। यादव वीरों ने यह समाचार सुना तो उनकी भुजायें फड़कने लगीं । जरासन्ध से निबटने के लिये वे लोग उसकी प्रतीक्षा अधीरतापूर्वक करने लगे ।
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किन्तु प्रकृति को कुछ और ही इष्ट था। जब दोनों सेनाओं में थोड़ा ही अन्तर रह गया तो अर्धभरत क्षेत्र में निवास करने वाली देवियों ने अपनी दिव्य सामर्थ्य से प्रसंख्य जलती हुई चितायें बनादीं । जब जरासन्ध सेना सहित वहाँ पहुंचा तो उसने चिताओं में जलती हुई सेना को देखा। जरासन्ध यह देखकर विस्मित रह गया । उसने अपनी सेना वहीं ठहरा दी। तभी उसकी दृष्टि चिताओं के निकट रोती हुई एक वृद्धा पर पड़ी। जरासन्ध उसके निकट पहुँचा और पूछने लगा- 'वृद्धे ! यह किसका कटक जल रहा है और तू यहाँ बैठो क्यों रो रही है ? मुझे सच-सच बता ।' वह वृद्धा कठिनाई से अपना रुदन रोक कर उच्छ्वसित कण्ठ से बोली -- 'राजन् ! मैं आपको सम्पूर्ण घटना बताती हूँ । आपके समक्ष अपना दुःख निवेदन करने से शायद मेरा दुःख कम हो जाय। सुना है, राजगृह नगर में जरासन्ध नामक कोई प्रतापी सम्राट है, जिसके प्रताप को अग्नि समुद्र में भी बड़वानल बनकर जलती है । यादवो अपने के कारण उस से भीत होकर अपना नगर छोड़कर भागे जा रहे थे । परन्तु समस्त पृथ्वी में भी उन्हें किसी ने शरण नहीं दी। तब उन्होंने अग्नि में प्राण विसर्जन करके मरण की शरण को ही उत्तम समझा। मैं यादव-नरेशों की वंश परम्परागत दासी हूँ। मुझे अपने प्राण प्रिय थे, इसलिये मैं नहीं मर सकी, किन्तु अपने स्वामी के इस कुमरण के दुःख से दुखी होकर यहाँ बैठी रो रही हूँ ।'
वह वृद्धा के वचन सुनकर अत्यन्त विस्मित हुआ और यादवों के जल मरने की बात पर उसने विश्वास कर लिया । वह वहाँ से राजगृही को लौट गया। यादव लोग भी वहाँ से चलकर पश्चिम समुद्र के तट पर जा पहुँचे । द्वारिका नगरी का निर्माण -- शुभ मुहूर्त में कृष्ण और बलभद्र स्थान प्राप्त करने के उद्देश्य से तीन दिन के उपवास का नियम लेकर पंच परमेष्ठियों का ध्यान करते हुए दर्भासन पर स्थित हो गये । उनके पुण्य से और तीर्थंकर नेमिनाथ की भक्ति से प्रेरित होकर सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से गौतम नामक शक्तिशाली देव ने समुद्र को दूर हटा दिया और कुबेर ने उस स्थान पर द्वारका नामक नगरी की रचना कर दी। यह नगरी बारह योजन लम्बी पौर नौ योजन चौड़ी तथा बज्रमय कोट से युक्त थी । समुद्र उसकी परिखा का काम करता था । उस नगरी में सुगन्धित कमलों से भरी हुई पुष्करिणी, वापिका, सरोवर और तड़ाग थे, अनेक जाति के फलवाले वृक्ष और पुष्पों बाली लतायें थीं, रत्ननिर्मित प्राकार और तोरणों से युक्त जिनालय थे, स्वर्णमय प्राकार मौर गोपुरों से युक्त भनेक खण्डों वाले प्रासाद थे। उस नगरी के बीचों-बीच समुद्रविजय आदि दसों भाइयों के महल थे और उनके बीच में कृष्ण का अठारह खण्डों बाला सर्वतोभद्र प्रासाद था । इस प्रासाद के निकट अन्तःपुर और पुत्रों मादि के योग्य महलों की पंक्तियाँ बनी हुई थीं । अन्तःपुर की पंक्तियों से घिरा हुआ एवं वापिका, उद्यान मादि से सुशोभित बलभद्र का महल था । इस महल के धागे एक सभामण्डप बना हुआ था। उग्रसेन भावि राजाओं के महल पाठ-पाठ खण्ड के थे ।
नगरी की रचना पूर्ण होने पर कुबेर ने श्रीकृष्ण को इसकी सूचना दी तथा उन्हें मुकुट, उत्तम हार, कौस्तुभ मणि, दो पीत वस्त्र, नक्षत्रमाला प्रादि प्राभूषण, कुमुद्वती नामक गदा, शक्ति, नन्दक नामक खड्ग, शार्ङ्गधनुष, दो तरकश बज्रमय वाण, दिव्यास्त्रों से युक्त और गरुड़ की ध्वजा वाला दिव्य रथ, नमर और श्वेत छत्र प्रदान किये ।