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भगवान नेमिनाथ
आसन से मेरा पैर ही विचलित कर दीजिये ।' श्रीकृष्ण कमर कसकर उठे और वे पूरे बल से भगवान के पैर से जूझ गये किन्तु पैर को तो क्या हुटा पाते, पैर की एक उंगली तक को न हिला सके। उनके मस्तक पर श्रमबिन्दु झलमलाने लगे, श्वास प्रबल वेग से चलने लगी । अन्त में श्रान्त होकर श्रीकृष्ण हाथ जोड़कर बोले- भगवन् ! आपका बल लोकोत्तर है ।
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किन्तु इस घटना से श्रीकृष्ण के मन में एक शंका बद्धमूल होकर जम गई कि भगवान का बल अपार है, इनके रहते मेरा राज्य शासन स्थिर कैसे रह पाएगा ।
तभी एक घटना और हो गई। बसन्त ऋतु थी। श्रीकृष्ण अपने परिवार और समस्त यादवों के साथ बन क्रीड़ा के लिए प्रभास पर्वत पर गये। भगवान नेमिनाथ भी साथ में थे। सभी लोग यथायोग्य वाहनों में बैठकर गिरनार पर्वत पर पहुँचे। चनश्री पूरे यौवन पर थी। नाना जाति के पुष्प विकसित थे। भ्रमरावलियाँ मधुपान करती हुई गुंजन कर रही थीं। कोकिल कूज रही थी । मलय पवन वह रहा था। ऐसे मादक वातावरण में सभी लोग क्रीड़ा में रत हो गये। श्रीकृष्ण की रानियों ने अपने देवर नेमिनाथ को घेर लिया। वे उनके साथ नाना प्रकार की क्रीड़ायें करने लगीं। फिर वे सरोवर में जल क्रीड़ा करने लगीं। भगवान भी उनके साथ इस आमोद-प्रमोद में पूरी तरह भाग ले रहे थे । जब सभी परिश्रान्त हो गई तो वे लोग जल से बाहर निकलीं और वस्त्र बदलने लगीं । भगवान ने वस्त्र बदलकर विनोद-मुद्रा में नारायण की प्रेमपात्र महारानी जाम्बवती से उतारे हुए गोल वस्त्र निचोड़ने के लिए कहा । यह सुनते हो महारानी जाम्बवती छद्म क्रोध प्रगट करती हुई कहने लगी- कांस्तुभ मणि धारण करने वाले, नागशय्या पर ग्रारूढ़ होकर शंख की ध्वनि से तीनों लोकों को कंपाने वाले, शाङ्गधनुष की प्रत्यञ्चा चढ़ाने वाले, राजाओं के भी महाराज श्रीकृष्ण मेरे पति हैं, वे भी मुझे कभी ऐसी आज्ञा नहीं देते । किन्तु प्राश्चर्य है। कि आप मुझे अपने कपड़े निचोड़ने की आज्ञा दे रहे हैं ।
"महारानी की यह बात सुनकर अन्य रानियों ने उसको भर्त्सना करते हुए कहा- तीन लोक के स्वामी और इन्द्रों से पूजित भगवान के लिए तुम्हें इस प्रकार प्रयुक्त वचन बोलना क्या शोभा देता ?
किन्तु भगवान ने मुस्कराते हुए कहा- "महाराज श्रीकृष्ण के शौर्य की जो प्रशंसा तुमने को है, वैसा शौर्य क्या कठिन है ? ' यों कहकर वे बेग से राजमहलों में पहुंचे और फुंकारते हुए नागों के फलों से मण्डित नागशय्या पर चढ़कर उन्होंने शाङ्ग' धनुष को झुकाकर उसको प्रत्यञ्चा चढ़ा दो तथा पाञ्चजन्य शंख को जोर से फूंका । संख के भयंकर शब्द से आकाश और पृथ्वी व्याप्त हो गई। हाथी और घोड़े बन्धन तुड़ाकर चिचाड़ने और हिनहिनाने लो । श्रीकृष्ण ने शंख-ध्वनि सुनी तो उन्होंने तलवार खींचली । नगरवासी आतंक से विजड़ित हो गये। जब पं. कृष्ण को ज्ञात हुआ कि यह तो हमारे ही शंख का शब्द है तो प्राशंकाओं से त्रस्त होकर वे शीघ्र ग्रायुधशाला में पहुंचे, किन्तु जब उन्होंने कुमार नेमिनाथ को नागशय्या पर अनादर पूर्वक खड़ा हुआ कोधित मुद्रा में देखा तो उन्हें सन्तोष का अनुभव हुआ। उन्होंने कुमार को प्रेमपूर्वक आलिंगनबद्ध कर लिया और अपने साथ ही उन्हें घर लेगये । घर पहुँचने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि वन विहार में मेरी ही रानियों के कारण कुमार को कामोद्दीपन हुआ है तो वे बड़े हर्षित हुए ।
नेमिनाथ के विवाह का प्रायोजन - श्रीकृष्ण ने के लिए याचना की । उन्होंने राजाओं को रानियों सहित भी पाणिग्रहण संस्कार के समाचार भेज दिये ।
भोजवंशी उग्रसेन की पुत्री राजीमती की कुमार नेमिनाथ जाने के निमन्त्रण भेज दिए तथा अपने बन्धुजनों के पास
श्रावण मास की वर्षा ऋतु में यादवों की बरात सजधज कर द्वारिका से निकली। बरात में अगणित बराती थे | अनेक नरेश राजसी वैभव का प्रदर्शन करते हुए जा रहे थे । बराती नानाविध वाहनों में बैठे थे। श्रीकृष्ण, बलराम आदि से घिरे हुए कुमार नेमिनाथ वर की वेषभूषा धारण किए और रत्नालंकारों से अलंकृत हुए रथ में विराजमान थे। त्रिलोकसुन्दर भगवान अलंकार धारण करके रूप के साकार रूप लग रहे थे । यादव कुमारियाँ मूर्तिमान कामदेव के मार्ग में पलक पांवड़े बिछाये उनके ऊपर अक्षत लाजा की वर्षा कर रही थीं । सौभाग्यवती स्त्रियां राजपथों के किनारे पर जल से परिपूर्ण स्वर्ण घट लिए खड़ी थीं। युवती स्त्रियाँ हयों, प्रासादों
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