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भगवान नेमिनाथ : एक ऐतिहासिक व्यक्तित्त्व
लेकर उसे प्रात्मसात कर लिया और उसे ऐसा रंग प्रदान किया, जिससे यह प्रतीत होने लगा कि प्रात्म-विद्या उपनिषदों की मौलिक देन है। इसके पश्चात वैदिक धर्म ने क्षत्रियों द्वारा स्वीकृत एवं व्यवहत संन्यास मार्ग को अपनाया। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक 'गीता रहस्य' (१० ३४२ ) में लिखते हैं-जन और बौद्ध धर्म के प्रवर्तकों ने कापिल सांख्य के मत को स्वीकार करके इस मत का विशेष प्रचार किया कि संसार को त्याग कर सन्यास लिये बिना मोक्ष नहीं मिलता ।......यद्यपि श्री शंकराचार्य ने जैन और बौद्धों का खण्डन किया है, तथापि जन प्रौर बौद्धों ने जिस सन्यास मार्ग का विशेष प्रचार किया था, उसे ही श्रौत स्मार्त सन्यास कहकर आचार्य ने कायम रक्खा।' वेदों में सन्यास मार्ग का कोई वर्णन नहीं मिलता। वेद तो क्रियाकाण्ड प्रधान प्रवृतिपरक ग्रन्थ हैं; निवत्ति मार्ग तो केवल क्षत्रियों की श्रमण परम्परा में ही प्रचलित था। उपनिषद काल में उन्हीं से सन्यास मार्ग को अपनाया गया।
धीरे-धीरे वैदिक धर्मानुयायी जनता उपनिषदों के शुष्क आध्यात्मिक वितण्डावाद से भी ऊबने लगी। उसकी प्राध्यात्मिक चेतना और भूख को उपनिषद् भी खुराक नहीं जुटा सके । बह जनता ब्राह्मणों की एकाधिकारवादी प्रवत्ति से भी प्रसन्तुष्ट थी। वह देख रही थी कि जैन और बौद्ध धर्म में सभी वर्गों और वर्गों के लिये उन्नति के द्वार खुले हुए हैं। जैन तीर्थंकरों और तथागत बुद्ध का उपदेश जनता की भाषा में होता है, सभी वर्ण के लोग उसको सुनने, सुनकर उसका आचरण करने और प्राचरण करके अपनी सर्वोच्च आत्मिक उन्नति करने के अधिकारी हैं। सभी तीर्थकर और बुद्ध मानव से भगवान बने हैं। उक्त धर्मों की इन विशेषताओं के कारण वैदिक जनता में वैदिक धर्म के प्रति घोर असन्तोष व्याप्त हो रहा था, बुद्धिजीवी वर्ग विद्रोह तक करने के लिये तैयार था और अनेक लोग वैदिक धर्म को त्याग कर जैन और बौद्ध धर्मों में दीक्षित हो रहे थे । अन्तिम जैन तीर्थंकर भगवान महावीर के ग्यारह गणधरों में सभी ब्राह्मण थे । तथागत बुद्ध के पंचवर्गीय भिक्षुत्रों में सभी ब्राह्मण थे । यह तथ्य इस बात का प्रमाण है कि तत्कालीन बंदिक जनता में अपने धर्म के प्रति कितना घोर असन्तोष था। अत: उस समय इन धर्मों के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने के लिये ऐगे धर्म की प्रावस्यकता पी लो उक्त धर्मों के विरुद्ध जनता को प्रभावित कर सकता । उसी पावश्यकता के फलस्वरूप भागवत धर्म की उत्पत्ति हुई, जिसे बाद में बैष्णव धर्म कहा जाने लगा। यद्यपि इस धर्म के प्रवर्तक ब्राह्मण थे, किन्तु जन-असन्तोप को देखकर उन्हें क्षत्रिय कृष्ण को विष्णु का अवतार घोषित करना पड़ा और इस प्रकार मानव शरीरधारी ईश्वर को सृष्टि की गई।
प्रसिद्ध इतिहासकार श्री गौरीशंकर हीराचन्द मोझा लिखते हैं
"बौद्ध और जैनधर्म के प्रचार से वैदिक धर्म को बहुत हानि पहुंची। इतना ही नहीं, किन्तु उसमें परिवर्तन करना पड़ा और वह नये सांचे में ढलकर पौराणिक धर्म बन गया। उसमें बौद्ध और जैनों से मिलती धर्म सम्बन्धी बहत-सी नई बातों में प्रवेश किया।"
यद्यपि हिन्दू इतिहासकारों ने इस बात को दबे शब्दों में स्वीकार किया है, किन्तु तथ्य यह है कि जैन तीर्थकर और तथागत बुद्ध मनुष्य थे । वे अपने प्राध्यात्मिक प्रयत्नों से भगवान बने थे और उनको मान्यता एवं पुजा देवतामों से अधिक होती थी, यहाँ तक कि देवता भी उनकी पूजा करने में गौरव का अनुभव करते थे। मनुष्य भी अपने प्रयत्नों से भगवान बन सकता है, यह सिद्धान्त लोक-मानस को अधिक रुचिकर एवं प्रेरणाप्रद लगा। इसी सिद्धान्त से प्रभावित होकर ब्राह्मण धर्मनायकों ने एक ऐसे ईश्वर की कल्पना की, जो मनुष्य के रूप में अवतार लेकर अलौकिक कार्य करने की क्षमता रखता है, जो दुष्ट-दलन और शिष्ट-पालन करता है। यमण परम्परा के सिद्धान्त को ब्राह्मणों ने अपनी शैली में डालकर हिन्दू-धर्म की जर्जर नाव को डूबने से बचाया । कृष्ण की अवतार मामने की यह प्रक्रिया निश्चय ही श्रमण परम्परा के व्यापक प्रभाव का परिणाम थी, यद्यपि इस प्रक्रिया में दोनों संस्कृतियों का मौलिक भेद स्पष्टतया उभर कर पाने से छिपा रह नहीं सका 1 श्रमण परम्परा में मनुष्य भगवान बन सकता है, यह उत्तारवाद अथवा उन्नतिवाद का परिणाम है। दूसरी ओर भगवान मनुष्य बन सकता है, यह अवतारवाद अथवा अवनतिवाद का परिपाक कहा जा सकता है । दूसरी बात जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, वह
१. राजस्थान का प्राचीन इतिहास, प्रथम भाग, पृ०१०-११