Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 332
________________ भगवान नेमिनाथ से सम्बद्ध नगर अर्थात् नेमि जिनेन्द्र शौरीपुर नक्षत्र में उत्पन्न हुए । ता शिवदेवी और पिता समुद्रविजय से वैशाख शुक्ला १३ को चिंत्रा देवों और इन्द्रों ने भक्ति और उल्लासपूर्वक भगवान के इन दो कल्याणकों का महोत्सव शौरीपुर मे अत्यन्त समारोह के साथ मनाया। इन दो कल्याणकों के कारण यह भूमि कल्याणक भूमि, क्षेत्र मंगल मौर तीर्थ क्षेत्र कहलाने लगी । पौराणिक उल्लेखों से ज्ञात होता है कि इस तीर्थक्षेत्र पर कुछ मुनियों को केवलज्ञान तथा निर्वाण प्राप्त हुआ था । गन्धमादन पर्वत पर सुप्रतिष्ठ मुनि तप कर रहे थे। उनके ऊपर सुदर्शन नामक एक यक्ष ने घोर उपसर्ग किया। मुनिराज ने उसे समतापूर्वक सहन कर लिया और आत्म ध्यान में लीन रहे । फलतः उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया । इन्हीं केवली भगवान के चरणों में शौरीपुर नरेश अन्धकवृष्णि और मथुरा नरेश भोजकवृष्णि ने मुनि दीक्षा लेलो । मुनि धन्य यमुना तट पर ध्यानमग्न थे। शौरीपुर नरेश शिकार न मिलने के कारण अत्यन्त क्षुब्ध था । उसकी दृष्टि मुनिराज पर पड़ी। उस मूर्ख ने विचार किया कि शिकार न मिलने का कारण यह मुनि है। उसने क्रोध और मूर्खतावश तीक्ष्ण वाणों से मुनिराज को बींध दिया। मुनिराज शुक्लध्यान द्वारा कर्मों को नष्ट कर सिद्ध भगवान बन गये । मुनि पलसत्कुमार विहार करते हुए शौरीपुर पधारे और यमुना तट पर योग निरोध करके ध्यानारूढ़ हो गये । कर्म श्रृंखलायें टूटने लगीं। उन्हें केवलज्ञान हो गया और निर्वाण प्राप्त किया । यम नामक अन्तःकृत केवलो यहीं से मुक्त हुए । इस प्रकार न जाने कितने मुनियों को यहाँ केवलज्ञान हुआ शौर कितने मुनि यहाँ से मुक्त हुए। मुनियों को यहाँ से निर्वाण प्राप्त हुआ, अतः यह स्थान साधारण तीर्थ न होकर निर्वाण क्षेत्र या सिद्धक्षेत्र है । सिद्धक्षेत्र होने के अतिरिक्त यहाँ अनेक ऐतिहासिक और पौराणिक घटनायें भी हुई थीं। भगवान ऋषभदेव, भगवान नेमिनाथ, भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीर का इस भूमि पर बिहार हुआ था। उनका सभवसरण यहाँ लगा था और उनके लोककल्याणकारी उपदेश हुए थे । यहीं पर प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान् आचार्य प्रभाचन्द्र के गुरु श्राचार्य लोकचन्द्र हुए थे। यह भी अनुश्रुति है कि आचार्य प्रभाचन्द्र ने अपने सुप्रसिद्ध दार्शनिक ग्रन्थ 'प्रमेय कमल मार्तण्ड' की रचना यहीं पर की थी। उस समय यादववंशियों के तीन राज्य थे – (१) कुशद्य जनपद, जिसकी राजधानी शौरीपुर या शौर्यपुर थी मौर जिसे शूर ने बसाया था । (२) शूरसेन जनपद, जिसकी राजधानी मथुरा थी। (३) वीयंपुर। यह कहाँ अव स्थित था और इसका कौन राजा था, यह ज्ञात नहीं हो पाया । संभवतः चन्दवाड़ का पूर्वनाम वीयंपुर रहा हो अथवा यह इसके कहीं ग्रासपास रहा हो। मथुरा के नरेश भोजकवृष्णि और शौरीपुर के नरेश अन्धकवृष्णि दोनों चचेरे भाई थे । भोजकवृष्णि के तीन पुत्र थे— उग्रसैन, महासेन और देवसेन। पिता के पश्चात् मथुरा का राज्य उग्रसेन को मिला। उग्रसेन का पुत्र कंस था, जिसने अपने पिता को कारागार में डाल दिया था और बाद में श्रीकृष्ण ने कंस का वध करके उग्रसेन को कारागार से मुक्त किया। अन्धकवृष्णि की महारानो सुभद्रा से दस पुत्र और दो पुत्रियाँ हुई। दस पुत्रों में समुद्रविजय सबसे ज्येष्ठ थे और वसुदेव सबसे छोटे थे । पुत्रियों के नाम कुन्ती और मद्रो थे, जिनका विवाह हस्तिनापुर के राजकुमार पाण्डु के साथ हुआ और जिनसे पांच पाण्डव उत्पन्न हुए। समुद्रविजय की महारानी शिवादेवी से नेमिनाथ तीर्थंकर का जन्म हुआ । वसुदेव की महारानी रोहिणी से बलराम हुए मौर दूसरी महारानी देवकी से श्रीकृष्ण उत्पन्न हुए। दोनों भाई क्रमशः बलभद्र और नारायण थे। नारायण श्रीकृष्ण ने ही उस समय के सबसे प्रतापी सम्राट् राजगृह नरेश जरासन्ध का वध किया था । जब यादव शौरीपुर, मथुरा और वीर्यपुर का त्याग करके पश्चिम की ओर चले गये और द्वारका बसाकर वहीं रहने लगे, तब वहाँ का शासन-सूत्र श्रीकृष्ण ने संभाला। यादवों के जाने के पश्चात् शौरीपुर की महत्ता समाप्तप्राय हो गई। जैन पुराणों में यादवों के निष्क्रमण के पश्चात् शौरीपुर का उल्लेख बहुत कम आया है। एक

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