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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास यह है कि श्रमण परम्परा की मौलिक विशेषता श्रम की प्रतिष्ठा है, जबकि वैदिक परम्परा श्रम को महत्व न देकर अधिनायकवाद को प्रश्रय देती है। धमण परम्परा में लोकतन्त्री व्यवस्था का उच्च स्थान है, वहां हर व्यक्ति को समान अधिकार, उन्नति के समान अवसर और कर्तव्य की प्रतिष्ठा है, जबकि वैदिक परम्परा के अवतारवाद की कल्पना में कोई अपने पुरुषार्थ से सर्वोच्च प्राध्यात्मिक पद प्राप्त करने का अधिकारी नहीं है, वहाँ संसार से मुक्त होने या निर्वाण प्राप्त करने तथा भगवान बनने की कल्पना तक नहीं की जा सकती, बल्कि अवतारी भगवान की प्रसन्नता पाने पर विष्ण-लोक में पहुँचने तक की उड़ान की गई है । ब्राह्मणों ने दूसरों की पच्छाइयों, दूसरों के महापुरुषों और सिद्धान्तों को आत्मसात् करके उन्हें प्रपने रंग में रंगने का जो निष्फल प्रयास किया, उसी के फल-. स्वरूप शिव, पार्वती, विष्ण, कृष्ण, ऋषभ, बुद्ध आदि को अपने अवतारों में गिन तो लिया, उससे ऋषभ, बुद्ध प्रादि अवतार उनके ग्रन्थों की शोभा वस्तु तो बन गये, किन्तु उनके मन्दिरों में वे प्रवेश न पा सके । शिव और विष्णु के अवतारों की भी ऐसी खिचड़ी पकी कि उमदे दाने मला नाही रहे. मिश नहीं पाये। शिव पुराण, लिंग पूराण आदि में विष्णु से शिव को उच्चतर पद दिया गया और महाभारत, भागवत, विष्णुपुराण, हरिवंश पुराण आदि में विष्णु-विशेषतः उनके अवतार कृष्ण को सबसे उच्च पद पर प्रासीन किया गया। फिर भी इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि ब्राह्मणों की सबको पचाकर हजम करने की प्राचीन प्रक्रिया के कारण वैदिक धर्म भारत के व्यापक क्षेत्र में अपना प्रभाव स्थापित करने में समर्थ हो सका। अब शिव प्रार्यकालीन देवता नहीं प्रतीत होते, ये तो, लगता है जैसे वेदों की उपज हों। इसी प्रकार विष्णु और उनके अवतार कृष्ण पश्चात्कालीन कल्पना की उपज नहीं लगते, बल्कि गीता में कृष्ण ने अपने आपको यज्ञरूप और वेदरूप कहकर वेदों से समझौता कर लिया है, ऐसे शात होते हैं।
अधिकांश इतिहासकार इससे सहमत हैं कि ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में वासुदेव कृष्ण को विष्णु का पवतार मान लिया गया था। उन्हें सर्वोच्च स्थान देने की दृष्टि से ही अन्य अवतारों को विष्णु के अवतार के रूप में मान्यता दी गई। इसीलिये इन अवतारों में भी भेद रखा गया। कृष्ण को विष्णु का षोडश कलावतार अथवा पर्णावतार माना गया, जबकि अन्य अवतारों को केवल अंशावतार ही माना गया।
जैन मान्यतानुसार श्रीकृष्ण की लोकव्यापी प्रतिष्ठा स्थापित करने में उनके भाई बलराम का हाथ था। उन्होंने देव बनने के बाद पूर्व जन्म के भ्रातृस्नेहवश श्रीकृष्ण के रूप, गुण, बुद्धि, पराक्रम, वैभव प्रादि के चमत्कारों का ऐसा सुनियोजित प्रचार किया, जिससे लोक मानस में श्रीकृष्ण प्राराध्य के रूप में छा गये और वे घर-घर में पतिमानव के रूप में पूजे जाने लगे। यह कल्पना भी पौराणिक काल की उपज रही हो तो इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं होगी।
भगवान नेमिनाथ से सम्बद्ध नगर
नेमिनाथ की जन्म-नगरी-शौरीपुर-आगरा से, दक्षिण-पूर्व की ओर वाह तहसील में ७० कि०मी० दर बटेश्वर गांव है। यहाँ से ५ कि. मी. दूर यमुना के खारों में शौरीपुर क्षेत्र अवस्थित है। वाह से वटेश्वर ८ कि.मी. और शिकोहाबाद से २५ कि. मी. है।।
शोरीपुर ही वह पावन भूमि है, जहाँ भगवान ने मिनाथ वहाँ के अधिपति समुद्रविजय की महारानी शिवादेवी के गर्भ में अवतरित हुए थे। उनके गर्भावतरण से छ: माह पूर्व से इन्द्र की आज्ञा से कुवेर ने रत्नवर्षा की थी, जो उनके जन्म-काल तक प्रतिदिन चार बार होती रही। उनके जन्म के सम्बन्ध में तिथि आदि ज्ञातव्य बातों पर प्रकाश शलते हए प्राचान यतिवृषभ 'तिलोय पण्णत्ती' ग्रन्थ में लिखते हैं
सजरीपरम्म जाबो सिववेवीए समूहविजएण। वसाह तेरसीए सिदाए चित्तासु मिजिणो ॥४१५४७