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भगवान नेमिनाथ : एक ऐतिहाि
जब वैदिक आर्य पश्चिमोत्तर प्रदेश से भारत में प्रविष्ट हुए, उन्हें यहां जिन लोगों से पाला पड़ा, वे शिश्नदेव, व्रात्य, और वातरशना मुनियों की उपासना करते थे। उनकी सभ्यता अत्यन्त समुन्नत और विकसित थी । इतिहासकारों ने उसे द्रविड़ सभ्यता का नाम दिया है। उस सभ्यता के दर्शन हमें सिन्धुघाटी के 'मोहन जोदड़ो श्रीर हड़प्पा में मिलते हैं । उस सभ्यता को नागर सभ्यता भी कहा जाता है। नागर सभ्यता से नगर नियोजन की उस विकसित परम्परा का प्राशय जिया जाता है जो इन नगरों में उत्खनन के परिणामस्वरूप हमें देखने को मिलती है । इन बंदिक प्रार्थी ने भारत में आकर दो कार्य किये - इनके योद्धा लोगों ने यहां के मूल निवासियों पर क्रमशः विजय पाई और इनके विद्वान् ब्राह्मण ऋषि मन्त्रों की रचना करके प्रकृति के तत्त्वों की देवता के रूप में पूजा करते थे । जब धीरे-धीरे वैदिक मार्यो का राज्य कुछ प्रदेशों में स्थिर हो गया और स्थानीय मूल निवासियों के साथ घुल मिल गये तो दोनों संस्कृतियों का एक दूसरे पर प्रभाव पड़ना प्रारम्भ हुआ और इस प्रकार सांस्कृतिक प्रादान-प्रदान का श्रम चालू हुआ।
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यहाँ के मूल निवासियों की संस्कृति, जिसे श्रमण संस्कृति के नाम से जाना जाता है, क्षत्रियों की संस्कृति थी तथा बाहर से आने वाले भायों की संस्कृति, जिसे बंदिक संस्कृति पुकारा जाता है, ब्राह्मणों की संस्कृति थी । दोनों के सांस्कृतिक आदान-प्रदान के इस काल को हम संक्रान्ति काल मान सकते हैं। इस काल में युद्ध का रूप बदल गया, युद्ध का उद्देश्य बदल गया । जय नार्य आये थे, उस समय उनका एकमात्र उद्देश्य अपने लिये राज्य प्राप्त करना था, भूमि प्राप्त करनी थी, जहाँ टिक सकें। जब राज्य प्राप्त हो गया और वे टिक गये, तब युद्ध का एक नया रूप उभरा। वह रूप या सांस्कृतिक । अब युद्ध न केवल राजनैतिक होते थे, प्रपितु उन्होंने एक सांस्कृतिक रूप ले लिया। दोनों ही संस्कृतियाँ अपने प्रचार प्रसार की ओर अधिक ध्यान देने लगीं, दोनों ही सर्वसाधारण को अपनी श्रेष्ठता से प्रभावित करने के लिए सचेष्ट हो उठीं, दोनों हो अपने आपको दूसरी से श्रेष्ठतर सिद्ध करने में जुट पड़ीं। प्रथम चरण में इस युद्ध का मोड़ जातीय श्रेष्ठता सिद्ध करने की ओर हो गया। ब्राह्मणों ने अपने आपको अन्य वर्णों से श्रेष्ठतम घोषित किया और ब्रह्मर्षि जैसे सर्वोच्च पद के लिए ब्राह्मण होना अनिवार्य करार दिया। दूसरी प्रोर श्रमण संस्कृति के उन्नायकों ने मानवों में श्रेष्ठतम तीर्थकर पद के लिए केवल क्षत्रिय कुल में जन्म लेना आवश्यक बताया। इस जातीय संघर्ष के इतिहास की झलक हमें वैदिक साहित्य में यत्र-तत्र बिखरी हुई देखने को मिलती है। इसका एक सशक्त उदाहरण विश्वामित्र और वशिष्ठ के युद्ध के रूप में मिलता है । वैदिक आख्यान के अनुसार गाधि के पुत्र विश्वामित्र नामक एक क्षत्रिय राजा ने राज्य का परित्याग करके ब्रह्मर्षित्व प्राप्त करने के लिए घोर तप करना प्रारंभ कर दिया। श्रार्यों के उपास्य इन्द्र ने जो वस्तुतः देव नामक मनुष्य जाति का राजा होता था, विश्वामित्र को तप से भ्रष्ट करने के लिये अपनी जाति की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी अप्सरा मेनका को भेजा । उसने अपने हाव-भाव और नृत्य विलास से उस युवक क्षत्रिय ऋषि को विचलित करके अपने प्रति अनुरक्त कर लिया । फलतः शकुन्तला नामक कन्या का जन्म हुआ । किन्तु कन्या को जन्म देकर मेनका वहाँ से तिरोहित हो गई । तब विश्वामित्र को रहस्य समझते देर नहीं लगी। वे कन्या को वन में ही छोड़कर पुनः श्रतिशय घोर तप करने लगे। इससे ऋषिगणों में भयानक हलचल मच गई। तब भी ऋषियों ने उन्हें ब्रह्मर्षि स्वीकार नहीं किया, बल्कि विश्वामित्र के ब्रह्मपि बनने के दावे को झुठलाने और उन्हें दण्ड देने के लिए एक विशाल सैन्य बल के साथ महर्षि वशिष्ठ आगे आये। वैदिक याख्यान के अनुसार दोनों में साठ हजार वर्ष तक घोर युद्ध हुआ । सारे ऋषि महषि और देवता एक ओर थे, जबकि लगता है, क्षत्रिय वर्ग ने विश्वामित्र का पक्ष लिया। अन्त में विजय विश्वामित्र के पक्ष की हुई । ऋषियों ने विश्वामित्र के आगे झुककर उन्हीं की शर्तों पर समझौता किया। समझौते के अनुसार विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि पद प्रदान किया गया, उन्हें सप्तर्षियों में स्थान दिया गया और उनके द्वारा रचित गायत्री मंत्र को समस्त वैदिक मंत्रों से शक्तिशाली और वेदों का सार मान लिया गया । विश्वामित्र के पाग्रह का एक सीमित उद्देश्य था और वह था स्वयं को ब्रह्मर्षि पद पर प्रतिष्ठित करना। उनका उद्देश्य न तो व्यापक था और न समस्त क्षत्रिय जाति को ब्रह्मर्षि पद के लिए अधिकार दिलाने का उनका आग्रह ही था। अपने उद्देश्य में वे सफल हो गये और उन्होंने विजय प्राप्त करके ब्राह्मण जाति की सर्वश्रेष्ठता को थोथा साबित कर दिया। इसी जातीय संघर्ष की श्रृंखला की एक कड़ी परशुराम द्वारा इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करने का प्रयत्न थी ।
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