________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास पद्मनाभ को समाचार दिया कि श्रीकृष्ण श्रादि आ गये हैं। राजा ने उनसे युद्ध करने के लिये अपनी सेना भेजी । उसे श्रीकृष्ण आदि ने बुरी तरह परास्त कर दिया। अवशिष्ट सेना भागकर नगर में पहुंची। राजा ने नगर कोट के द्वार बन्द करा दिये । श्रीकृष्ण ने पैर की एक ठोकर में द्वार और प्राकार तोड़ दिये, नगर का विध्वंस करना आरम्भ कर दिया। नगर में त्राहि-त्राहि मच गई। हाथी और घोड़े बन्धन तुड़ाकर भागने लगे। तब भयभीत होकर पद्मनाभ स्त्रियों श्रीर नागरिकों को लेकर द्रौपदी की शरण में पहुँचा और दीनतापूर्वक अपने अपराध की क्षमा-याचना करता हुआ प्राण की भिक्षा मांगने लगा । तब उसकी दीन दशा देखकर दयार्द्र होकर द्रौपदी ने कहा-तू स्त्री वेष धारण करके चक्रवर्ती श्रीकृष्ण की शरण में जा । वे ही तुझे क्षमा करेंगे। पद्मनाभ ने ऐसा ही किया और स्त्री वेष धारण करके द्रौपदी को आगे करके स्त्रियों के साथ श्रीकृष्ण की दशरण में जा पहुंचा । श्रीकृष्ण ने धारणागत को अभयदान दिया और उसे वापिस लौटा दिया। द्रौपदी ने श्रीकृष्ण के चरणों में नमस्कार किया तथा वह पाण्डवों से विनय के साथ मिली तथा अपना दुःख रोते-रोते प्रगट किया, जिससे दुःख का भार उतर गया ।
२९८
तदनन्तर श्रीकृष्ण द्रौपदी को रथ में बैठाकर पाण्डवों के साथ समुद्र तट पर श्राये और अपना पांचजन्य शंख बजाया । उसके शब्द से दिशायें प्रतिध्वनित होने लगीं। उस समय चंपा नगरी के बाहर विराजमान जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करन के लिये धातकी खण्ड का नारायण कपिल प्राया था। उसने भी शंख का शब्द सुना । अतः उसने जिनेन्द्र भगवान से पूछा- 'भगवन् ! मेरे समान शक्तिसम्पन्न किस व्यक्ति ने यह शंख ध्वनि की है। इस क्षेत्र में तो मेरे समान अन्य कोई नारायण नहीं है।' तब जिनेन्द्र देव ने श्रीकृष्ण नारायण धीर पाण्डवों के सम्बन्ध में सारा वृत्तान्त बताया। नारायण कपिल नारायण कृष्ण को देखने की इच्छा से वहाँ से चलने लगा ता भगवान बोले- 'राजन् ! कभी तीर्थकर तीर्थंकर की, चक्रवर्ती चक्रवर्ती की, नारायण नारायण की, बलभद्र - बलभद्र की और प्रतिनारायण प्रति नारायणकी भेंट नहीं होती । केवल चिन्ह मात्र ही कृष्ण नारायण का तुम देख पाओगे ।' कपिल नारायण जब समुद्र तट पर पहुंचा, तब तक श्रीकृष्ण समुद्र में जा चुके थे। केवल उनकी ध्वजा केही दर्शन हो सके। वहाँ लौट कर नारायण कपिल ने राजा पद्मनाभ को खूब डांटा ।
कृष्ण और पांडव रामुद्र को पारकर इस तट पर आ गये। वहीं श्रीकृष्ण तो विश्वास करने लगे और पाण्डव नौका द्वारा गंगा को पार कर उसके दक्षिण तट पर ठहर गये । भीम ने विनोदवश नौका वहीं छुपा दी। श्रीकृष्ण ने घोड़ों और सारथी सहित रथ को उठाकर गंगा को पार किया। तट पर ग्राकर श्रीकृष्ण ने पांडवों से पूछा—'तुम लोगों ने नाव क्यों नहीं भेजी ?' भीम बोला- हम ग्रापको शक्ति देखना चाहते थे। यह बात सुन कर श्रीकृष्ण को क्रोध आ गया और उन्होंने क्रोधवश कहा- 'क्या तुमने अब तक मेरी शक्ति नहीं देखी थी ? तुम लोग हस्तिनापुर से निकल जाओ।' उन्होंने हस्तिनापुर जाकर वहां का राज्य सुभद्रा के पुत्र घासून को दे दिया।
पाण्डव कृष्ण के आदेश से हस्तिनापुर त्याग कर अपने अनुकूल जनों के साथ दक्षिण दिशा की घोर चले गये और वहाँ दक्षिण मथुरा नाम की नगरी बसा कर रहने लगे ।
नेमिनाथ का शीर्ष प्रदर्शन - एक दिन भगवान नेमिनाथ यादवों की कुसुमचित्रा नामक सभा में गये । उनके पहुँचने पर सभी यादवों ने खड़े होकर भगवान के प्रति सम्मान प्रगट किया । नारायण श्रीकृष्ण ने ग्रागे जाकर उनकी अभ्यर्थना की और उन्हें अपने साथ सिहासन पर बैठाया। सबके बैठने पर राजाओं में चर्चा चली कि सबसे अधिक बलवान इस समय कौन है। किसी ने पाण्डवों का नाम लिया, किसी ने श्रीकृष्ण का, किसी ने बलराम का किन्तु अन्त में अधिकांश राजानों और वलदेव ने कहा कि भगवान नेमिनाथ के समान तीनों लोकों में अन्य कोई पुरुष बलवान नहीं है । ये अपनी हथेली से पृथ्वी को उठा सकते हैं, समुद्रों को दिशाओं में फेंक सकते हैं, सुमेरु पर्वत को कम्पायमान कर सकते हैं। ये तो तीर्थंकर हैं। इनसे उत्कृष्ट दूसरा कौन हो सकता है ।
वलदेव के ये वचन सुनकर श्रीकृष्ण न भगवान की ओर देखकर मुसकराते हुए कहा- 'भगवत् ! यदि आपके शरीर में ऐसा उत्कृष्ट बल है तो क्यों न बाहु-युद्ध में उसकी परीक्षा कर ली जाय ।' भगवान ने किचित् मुसकरा कर कहा - 'हे अग्रज ! इसकी क्या आवश्यकता है। यदि आपको मेरा बाहु-बल ही जानना है तो इस
&
'
+