________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
और ग्लानि की प्राग में अला जा रहा था। उसने धनुष-बाण दूर फेंक दिया और श्रीकृष्ण के चरणों में गिरकर अश्रु बहाने लगा।धीकृष्ण ने उसे उठाकर गले से लगाया और सान्त्वना देते हुए बोले-आर्य! शोक न करें, भवितव्य प्रलय है । आपने राज वैभव छोड़कर बन में निवास स्वीकार किया, किन्तु देव के आने सब व्यर्थ होता है।
श्रीकृष्ण द्वारा समझाने पर भी जरत्कुमार विलाप करता रहा। श्रीकृष्ण बोले-'माय ! बड़े भाईराम मेरे लिए जल लाने गए हैं। उनके आने से पूर्व ही माप यहाँ से चले जाय । संभव है, वे अापके ऊपर क्षुब्ध हों।
आप पाण्डवों के पास जाकर उन्हें सब समाचार बतादें। वे हमारे प्रियजन हैं। वे आपकी रक्षा अवश्य करेंगे।' इतना कहकर उन्होंने जरत्कुमार को परिचय के लिए कौस्तुभ मणि देवी और उसे विदा कर दिया।
तदनन्तर श्रीकृष्ण यन्त्रणा के कारण व्याकुल हो गए, किन्तु उन्होंने अत्यन्त शान्त भाव से उसे सहन किया। उन्होंने पंच परमेष्ठियों को नमस्कार करके भगवान नेमिनाथ का ध्यान किया और पृथ्वी पर सिर झुकाकर लेट गए। उन्होंने मोह का परित्याग करके शुभ भावनामों के साथ शरीर का परित्याग किया। वे भविष्य में भरत क्षेत्र में तीर्थकर बनेंगे।
संसार कितना प्रसार है ! जो एक गोप के घर में मक्खन और दूध पीकर बड़े हुए, जो अपने शौयं पौर नीति विचक्षणता द्वारा सम्राट् जरासन्ध जैसे प्रतापी नरेश पर विजय पाकर प्रर्ध चक्रेश्वर के पद पर मारूढ़ हुए, जिनकी आंखों के संकेत ने एक हजार वर्ष के इतिहास का सृजन किया, वे ही महापुरुष श्रीकृष्ण एकान्त वन में असहाय दशा में निधन को प्राप्त हुए। वे जब उत्पन्न हुए तो कोई मंगल गीत गाने वाला नहीं था और जब उन्होंने भरण का वरण किया तो वहां कोई रोने वाला नहीं था। लगता है, देव अपने निष्ठर निर्मम हाथों से सबकी भाग्य लिपि लिखता है । उसका अतिक्रमण करने का साहस किसी में नहीं है।
स्नेहाकुल बलराम अपने तषित प्राणोपम भाई के लिए जल की तलाश में बहुत दूर निकल गए, किन्तु कहीं जल नहीं मिल रहा था। मार्ग में अपशकुन हो रहे थे, किन्तु उनका ध्यान एकमात्र जल की ओर था। जल मिल नहीं
रहा था, विलम्ब हो रहा था, उधर उनके मन में चिन्ता का ज्वार बढ़ता जा रहा था-मेरा मोहविष्हल बलराम प्यारा भाई प्यासा है, न जाने प्यास के मारे उसकी कैसी दशा होगी। तब उन्होंने वेग से दौड़ना की प्रव्रज्या प्रारम्भ कर दिया, उनकी दृष्टि जल की तलाश में चारों ओर थी। पर्याप्त विलम्ब और दूरी के
बाद उन्हें जलाशय दिखाई पड़ा-जल से परिपूर्ण, कमल पूष्पों से संकुल 1 वे जलाशय पर पहुंचे। उन्होंने जल में अवगाहन करके शीतल जल पिया और कमल-दलका पात्र बनाकर जल भरकर लेगए। उन्होंने देखा। धीकृष्ण वस्त्र ओढ़कर सो रहे हैं। उन्होंने विचार किया-संभवतः थक जाने पर मेरा भाई सुख निद्रा में सो रहा हैं। इसे स्वयं ही जगने दिया जाय। जब बहुत देर हो गई और श्रीकृष्ण नहीं जागे तो उन्होंने श्रीकृष्ण को जगाना उचित समझा। उन्होंने कहा-वीर ! इतना अधिक क्यों सो रहे हो । निद्रा छोड़ो और उठकर यथेच्छ जल पियो।
इतना होने पर भी श्रीकृष्ण की निद्रा भंग नहीं हई। तभी बलराम ने देखा कि एक बड़ी मक्खी व्रण के रुधिर की गन्ध से कृष्ण के ओढ़े हुए वस्त्र के भीतर घुस गई है किन्तु निकलने का मार्ग न पाने से व्याकुल है। उन्होंने श्रीकृष्ण का मुख उघाड़ दिया। उन्होंने देखा कि श्रीकृष्ण निष्प्राण पड़े हुए हैं। उन्होंने समझा कि मेरा प्यारा भाई प्यास से मर गया है। उनके मुख से प्रार्त गिरा निकली और वे अचेत होकर गिर पड़े । सचेत होने पर वे श्रीकृष्ण के शरीर पर हाथ फेरने लगे। तभी उनकी दृष्टि पर के व्रण पर पड़ी, जिसके रुधिर से वस्त्र रक्त वर्ण हो गया था। उन्हें निश्चय हो गया कि सोते समय किसी ने इनके पैर में वाण से प्रहार किया है। वे भयंकर गर्जना करते हुए कहने लगे-किस कारण शत्रु ने मेरे सोते हुए भाई पर प्रहार किया है, वह मेरे सामने पावे। किन्तु उनका गर्जन-तर्जन निष्फल रहा, कोई भी प्रकारण शत्रु उनके समक्ष उपस्थित नहीं हुपा और न उस शत्रु का कोई चिह्नही मिला। . निरुपाय वे पुनः श्रीकृष्ण को गोद में लेकर करुण विलाप करने लगे। वे मोहान्ध होकर बार-बार श्रीकृष्ण को जल पिलाने लगे। कभी वे जल से उनका मुख धोते, कभी उन्हें चमते, कभी उनका सिर संपत। फिर वे अनर्गल प्रलाप करने लगते। फिर वे श्रीकृष्ण के शव को लेकर वन में निरुद्देश्य भ्रमण करते रहे। इस प्रकार न जाने कितनी ऋतुएं उनके सिर के ऊपर से गुजर गई।