________________
weta fear एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व
भगवान नेमिनाथ का निर्वाण कल्याणक
३०९
प्रदोष काल में अपने जन्म नक्षत्र के रहते ५३६ मुनियों के सहित सिद्धपद प्राप्त किया। उनके ८००० शिष्यों ने मुक्ति प्राप्त की। भगवान नेमिनाथ के कुल ४ अनुबद्ध केवली हुए। चारों निकाय के इन्द्रों और देवों ने आकर भगवान का निर्वाण कल्याणक महोत्सव मनाया । इन्द्र ने गिरनार पर्वत पर वज्र से उकेरकर पवित्र सिद्धशिला का निर्माण किया और उस पर जिनेन्द्र
भगवान के लक्षण अंकित किये।
यादवों में समुद्रविजय आदि नौ भाई, देवकी के युगल छह पुत्र शंव, प्रद्युम्नकुमार आदि मुनि भी गिरनार पर्वत से मोक्ष को प्राप्त हुए ।
जरकुमार पृथ्वी का शासन करने लगा । कलिंग नरेश की पुत्री जरत्कुमार की पटरानी थी । उसके वसुध्वज नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । जब वसुध्वज राज्य शासन करने योग्य हो गया, तब जरत्कुमार पुत्र पर राज्य भार सौंप कर मुनि दीक्षा लेकर तप करने लगा। वसुध्वज के सुवसु नामक पुत्र हुआ। सुवसु के भीमवर्मा पुत्र हुआ जो कलिंग का शासक था। इस प्रकार इस वंश में मनेक राजा हुए। फिर कपिष्ट, उसके अजातशत्रु, उसके शत्रुसेन. शत्रुसेन के जितारि र जितारि के जितशत्रु हुआ । जितशत्रु के साथ भगवान महावीर के पिता सिद्धार्थ को छोटी बहन का विवाह हुआ । जब भगवान महावीर का जन्मोत्सवं हो रहा था, तब जितशत्रु कुण्डलपुर आया था। उस समय महाराज सिद्धार्थ ने अपने इस पराक्रमी मित्र का बड़ा सम्मान किया था। सिद्धार्थ का बहन का नाम यशोदया था। उसके यशोदा नामक पुत्री हुई । जितशत्रु अपनी पुत्री का विवाह महावीर के साथ करना चाहता था, किन्तु महावीर ने विवाह करने से इनकार कर दिया और तप करने चले गये। जितशत्रु प्रोर यशोदा दोनों ने भी दोक्षा लेली। बाद में मुनिराज जितशत्रु को केवलज्ञान प्राप्त हुआ और वे मोक्ष गये ।
जरत्कुमार की वंश-परम्परा
भगवान नेमिनाथ एक ऐतिहासिक व्यक्तित्त्व
कुछ वर्ष पूर्व तक विद्वानों को श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता में सन्देह था, किन्तु अब उन्हें ऐतिहासिक महापुरुष स्वीकार कर लिया गया है । ऐसी दशा में श्रीकृष्ण के समकालीन और उनके ताऊ समुद्रविजय के पुत्र नेमिनाथ की ऐतिहासिकता में सन्देह करने का कोई कारण नहीं है । प्रसिद्ध इतिहासज्ञ डॉ० राय चौधरी ने 'वैष्णव धर्म का इतिहास' ग्रन्थ में नेमिनाथ को श्रीकृष्ण का चचेरा भाई लिखा है। उन्होंने श्रीकृष्ण को ऐतिहासिक व्यक्ति सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण प्रस्तुत किए हैं किन्तु नेमिनाथ के सम्बन्ध में विशेष ज्ञातव्य नहीं दिया । संभवतः इसका कारण यही रहा है कि उनकी दृष्टि और उनका वर्ण्य विषय श्रीकृष्ण ही थे। उन्होंने नेमिनाथ का चरित्रचित्रण करने में जैन ग्रन्थों का उपयोग करने में कोई रुचि नहीं दिखाई ।
पी० सी० दीवान' ने इसके दो कारण बताये हैं। प्रथम तो यह हमें यह स्वीकार करना होगा कि हमारे वर्तमान ज्ञान के लिए यह संभव नहीं है कि जैन ग्रन्थकारों द्वारा एक तीर्थकर से दूसरे तीर्थकर के बीच सुदीर्घकाल का अन्तराल कहने में उनका क्या अभिप्राय है, इसका विश्लेषण कर सकें। किन्तु केवल इसी कारण से जैन ग्रन्थों में वर्णित अरिष्टनेमि के जीवन वृत्तान्त को, जो प्रति प्राचीन प्राकृत ग्रन्थों के आधार पर लिखा गया है, दृष्टि से ओझल कर देना युक्तियुक्त नहीं है। दूसरे कारण का स्पष्टीकरण स्पष्ट है । भागवत सम्प्रदाय के ग्रन्थकारों ने अपने परम्परागत ज्ञान का उतना ही उपयोग किया है जितना श्रीकृष्ण को परमात्मा सिद्ध करने के लिए आवश्यक था । जैन ग्रन्थों में ऐसे अनेक ऐतिहासिक तथ्य वर्णित हैं, जैसा कि ऊपर दिखाया है, जो भागवत साहित्य के वर्णन में नहीं मिलते।"
वैदिक साहित्य में यादव वंश का विस्तृत वर्णन मिलता है। उसमें अरिष्टनेमि का उल्लेख भी अनेक स्थलों पर उपलब्ध होता है । यहाँ यह स्पष्ट कर देना अनुचित न होगा कि हिन्दू पुराणों में भी यादव वंश का वर्णन एक-सा नहीं है, उसमें पर्याप्त असमानता है । हिन्दू पुराण 'हरिवंश' में यादव वंश-परम्परा इस प्रकार दी है
1. Annals of the Bhandarkar Research Institute, Poona, Vol. 23, P. 122.